क़ौल से बनी कव्वाली
पं. विजयशंकर मिश्र
कव्वाली संगीत की एक ऐसी विधा है जो लोकप्रिय तो बहुत है, लेकिन संगीत समाज में बहुत अधिक प्रतिष्ठित नहीं। कव्वाली शब्द की व्युत्पत्ति क़ौल शब्द से हुई है- जिसका अर्थ है- वचन। इस आधार पर यह कहा जा सकता है कि ईश्वर के वचनों का गायन, उनका गुणगान, उनकी प्रशंसा और स्तुति ही कव्वाली है। लेकिन, यह ईश्वर किसी भी मजहब का, किसी भी संप्रदाय का हो सकता है। यहां यह लिखना ग़लत नहीं होगा कि शुरु-शुरु में कव्वालियां सिर्फ मुस्लिम धर्म के पीरों, पैगंबरों और धर्मगुरुओं के लिए ही लिखी और गाई गईं। एक बहुत बड़े वर्ग का यह मानना है कि हिंदू धर्म की सामूहिक कीर्तन परंपरा से प्रभावित होकर हजरत अमीर खुसरो ने तेरहवीं-चैदहवीं शताब्दी में कव्वाली की शुरुआत की।
कव्वाली संगीत की एक ऐसी विधा है जो लोकप्रिय तो बहुत है, लेकिन संगीत समाज में बहुत अधिक प्रतिष्ठित नहीं। कव्वाली शब्द की व्युत्पत्ति क़ौल शब्द से हुई है- जिसका अर्थ है- वचन। इस आधार पर यह कहा जा सकता है कि ईश्वर के वचनों का गायन, उनका गुणगान, उनकी प्रशंसा और स्तुति ही कव्वाली है। लेकिन, यह ईश्वर किसी भी मजहब का, किसी भी संप्रदाय का हो सकता है। यहां यह लिखना ग़लत नहीं होगा कि शुरु-शुरु में कव्वालियां सिर्फ मुस्लिम धर्म के पीरों, पैगंबरों और धर्मगुरुओं के लिए ही लिखी और गाई गईं। एक बहुत बड़े वर्ग का यह मानना है कि हिंदू धर्म की सामूहिक कीर्तन परंपरा से प्रभावित होकर हजरत अमीर खुसरो ने तेरहवीं-चैदहवीं शताब्दी में कव्वाली की शुरुआत की।
दरअसल,
बदलते समय के साथ खयाल गायकों ने अपनी गायकी को बदलना शुरू कर दिया
था। उन लोगों ने- ध्रुवपद गायन से प्रेरणा लेकर, उसके कई
तत्वों का समावेश करके अपनी खयाल गायकी को आभिजात्य गायकी का रंग देना शुरू कर
दिया था, जबकि कव्वाली गायकी उसी नौसर्गिक रुप में बढ़ती रही।
यहां यह लिखना गलत नहीं होगा कि खयाल गायकों ने अपनी गायन शैली को जिस अनुशासन और
व्याकरण में बांधा उसी ने खयाल को यह लोकप्रियता प्रदान करते हुए उसे रागदारी
संगीत की भी संज्ञा प्रदान की है। सुप्रसिद्ध लेखक पद्मभूषण ठाकुर जयदेव सिंह के
अनुसार- ’खयाल अरबी शब्द है। इसके अनेक अर्थ होते हैं,
जिनमें हम तीन ही अर्थ लेते हैं (क) सामान्य या विधायक कल्पना,
(ख) अनुभूति और (ग) कल्पनाप्रवण छंद। कव्वाल कव्वाली गाते हैं,
अर्थात् उनके गायन के तरीके में ‘क़ौल’ शब्द का प्रयोग होता है। क़ौल शब्द का अर्थ वही है, जो
संस्कृत में वाचक शब्द का होता है। यद्पि क़ौल और वाचक दोनों शब्दों का व्यापक
प्रचार है। संगीत में दोनों शब्द एक सीमित अर्थ में प्रयुक्त होते हैं। जैसे हिंदू
धर्म में ‘वाचक’ ‘वाणी’ या ‘शबद’ के गायन का अर्थ होता
है- रहस्यवादी गीत या भक्ति गीत का गायक। ठीक इसी तरह इस्लाम में कव्वाली या क़ौल
गायक का अर्थ है- रहस्यवादी गीत का गायन, जैसा कि इस्लाम का
विश्वास है। जब कव्वाल क़ौल गाता है तो उसे कव्वाली कहा जाता है। जब वह कोई दूसरा
कल्पना प्रवण गीत गाता है तब उसको खयाल कहता है। खयाल शब्द का अर्थ कल्पना और
कल्पनापरक संरचना दोनों ही होता है। जब अमीर खुसरो ने तेरहवीं शताब्दी में
रुकालप्ति की ऐसी अलंकृत शैली का गायन सुना जो अलंकारों से परिपूर्ण थी, तब उन्होंने सर्जनात्मक कल्पना के उस संगीत को ‘ख़याल’
कहा क्योंकि इसके लिए ‘खयाल’ से उपयुक्त कोई शब्द नहीं था। इस अलंकृत शैली का गायन उस समय अधिकांशतः
दरबारी संगीतज्ञों और नर्तकियों मे लोकप्रिय था। खयाल शब्द लोकप्रिय होता गया और
वह प्रकृत रुप में चल निकला। अमीर खुसरो ने इस शैली का प्रवर्तन नहीं किया,
बल्कि उन्होंने केवल इसका अरबी नामकरण किया। कव्वाली गायन कला के
कुछ तत्व, संभव है, इस देशी शैली में
शामिल हो गए हों, किंतु वे तत्व ऐसे घुल-मिल गए कि उनको अलग
करना असंभव हो गया। यथार्थतः कव्वाली पर भारतीय संगीत का ही प्रभाव पड़ा।
दरअसल, शुरू-शुरू में
खयाल और कव्वाली के रिश्ते अत्यंत आत्मीय और निकट के थे। इसलिए, एक पर विचार करते समय दूसरे की चर्चा स्वतः ही छिड़ जाती है। आचार्य
कैलाशचंद्र देव वृहस्पति ने लिखा है कि- ’कौल’ का अर्थ- कथन, वचन, बात,
प्रवचन, प्रतिज्ञा या विशिष्ट उक्ति है। कौल
को गाने वाला कव्वाल है। कव्वालों की गान शैली कव्वाली और कव्वालों की गान शैली
में गाई जानेवाली गज़लें ही गेय रुप में कव्वाली कहलाती हैं। कव्वाली में तान,
पलटा, जमजमा, बोलबांट
सभी कुछ होता है। प्रसिद्ध खयाल गायक उस्ताद तानरस खां बहुत अच्छे कव्वाल थे।
गजलों को एक विशिष्ट शैली में गाने वाले कव्वाल सूफियों के साथ सदा से रहा करते
थे। शेख मुईनुद्दीन चिश्ती (निधन 1235 ईस्वी) की सेवा में भी
कव्वाल थे। शैख कुतुबुद्दीन बख्त्यार काफी का तो निधन (1236
ईस्वी) ही कव्वाली सुनते-सुनते हुआ था। शैख निजामुद्दीन चिश्ती के जनाजे के
साथ-साथ उनकी वसीयत के अनुसार कव्वाल लोग गाते हुए चल रहे थे। अतः गजल और कव्वाली
का आदर्श रूप सदा से सम्मानीय रहा है। प्रसिद्ध उस्ताद बड़े मुहम्मद खां कव्वाल
बच्चे ही थे, जिनकी नकल हस्सू खां और हद्दू खां ने की,
अतः ग्वालियर की ख्याल गायकी कव्वालों के बच्चों से प्रभावित है।’
कव्वाली, गजल और
संकीर्तन के आपसी रिश्ते पर प्रकाश डालते हुए आचार्य वृहस्पति ने लिखा है कि- गजल का विषय लौकिक प्रेम है। यदि गजल के प्रेम पात्र को ईश्वर समझकर भक्ति
भावमग्न हुआ और गाया जाये- तो वही कव्वाली है। लौकिक प्रेम या ईश्वरीय भक्ति को
किसी संप्रदाय का एकाधिकार तो नहीं कहा जा सकता। कव्वाली सुनकर भावमग्न हो
जानेवाले आनंद में झूमकर नाचने वाले सज्जन चाहे हमीदुद्दीन नागौरी हो अथवा
कीर्तन पदों पर नाचनेवाले चैतन्य महाप्रभु हों, दोनों में
क्या अंतर है? गजलों और कव्वालियों का प्रभाव उन-उन स्थानों
पर अधिक रहा, जिन-जिन स्थानों पर चिश्ती परंपरा के सूफी
संतों का प्रभाव था। बहमनी सुलतानों और उनके उत्तराधिारियों की सभायें गजल गायकों
के स्वर से गूंजती रहीं। दिल्ली से स्वतंत्र होकर जब जौनपुर मुस्लिम विधाओं का
केंद्र बना, तब गजलें और कव्वालियां वहां खूब फलीं-फूली। और
खुसरो का सम्प्रदाय वहां विकसित हुआ। हुसैन शाह शर्की जैसे जौनपुर के सुलतान खुसरो
पद्धति के महापंडित और नवीन रागों के आविष्कारक हुए। जब दिल्ली को पुनः मुगलो की
राजधानी होने का गौरव प्राप्त हुआ, तब दरबार पर सूफी प्रभाव
के कारण पुनः कव्वालों की तूती बोलने लगी। मुहम्मद शाह रंगीले के युग में ताज खां,
उनके पुत्र जानी और गुलाम रसूल, मुईनुद्दीन,
बरहानी, जटृा, अल्लाह
बंदे इत्यादि प्रसिद्ध कव्वाल थे। सदारंग जैसे कलावंत को इन्हीं कव्वालों से पाला
पड़ा था। वे स्वयं भी सूफियों के मुरीद थे। तानरस खां अंतिम मुगल बादशाह बहादुर शाह
जफर के गवैये थे और जैसा कि पहले लिखा जा चुका है, कव्वाली भी
खूब गाते थे।
- कौल शब्द भले ही अरब या फारस से आया हो, कव्वाली भारत की ही देन
- जहाँ-जहाँ चिश्ती परंपरा के सूफी संत, वहाँ-वहाँ कव्वाली का प्रभाव
- खयाल और कव्वाली के रिश्ते अत्यंत आत्मीय और निकट के
अवध
के अंतिम नवाब वाजिद अली शाह के समय तक आते-आते कलाकारों में अज्ञानता व्याप्त हो
जाने के कारण एक ओर कव्वाली गायन का स्तर गिरने लगा था, तो
दूसरी ओर खयाल, ठुमरी, टप्पा और दादरा
आदि जैसी गायन शैलियां लोकप्रियता के सोपान तय करने लगी थीं। और तभी लोगों ने
कव्वाल गायकों को बिगड़ैल गवैया कहना शुरू कर दिया था।
इस
विषय पर- अर्थात्- कव्वाली और खयाल के रिश्ते पर बात करते हुए दिल्ली घराने के
खयाल गायक भी मानते हैं कि उनके यहां खयाल गायन की शुरुआत बादशाह इल्तुमिश के समय
के कव्वाल बच्चों से ही हुआ है। उनके अनुसार इल्तुमिश के शासन काल में मीर हसन
सावंत और मीर बूला कलावंत दो भाई थे। इन दोनों भाइयों में से एक तो गूंगे-बहरे थे
और दूसरे सिर्फ बहरे। बादशाह एक दिन संगीत का कार्यक्रम आयोजित करना चाहते थे।
किसी ने शरारतवश इन दोनों भाइयों को परेशान करने के उद्देश्य से बादशाह तक यह
सूचना पहुंचा दी कि ये दोनों भाई बहुत अच्छे गायक हैं। अतः बादशाह ने इन दोनों
भाइयों को गाने के लिए बुलवा लिया। लेकिन, ये दोनों
गूंगे-बहरे भाई भला क्या गाते?
दैवयोग
से ख्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती को जब असलियत का पता चला तो उन्होंने इनके लिये अल्लाह
से दुआ मांगी। नतीजा यह हुआ कि दोनों भाइयों को बोलने और सुनने की शक्ति मिल गई और
उन्होंने गाना शुरू कर दिया जिससे बादशाह बहुत खुश हुए। उन्होंने इन्हें पुरस्कृत
भी किया और अपने राज दरबार में स्थान भी दिया। लेकिन, चूंकि
हसन सावंत धार्मिक और आध्यात्मिक विचारों के थे, अतः
उन्होंने बादशाह से माफी मांगते हुए उनके निमंत्रण को ठुकरा दिया और पीरो-पैगंबरों
के मजारों-दरगाहों पर जा-जाकर धार्मिक भावनाओं से ओत-प्रोत कव्वाली आदि ही गाते
रहे। इनके वंशज कव्वाल और कव्वाल बच्चे के नाम से जाने गए। जबकि, दूसरे भाई मीर बूला कलावंत चूंकि दरबारी गायक के रुप में प्रतिष्ठित हुए,
अतः उनकी संतानें कलाकार अथवा कलावंत के नाम से संबोधित की गई।
तेरहवीं शताब्दी के सुप्रसिद्ध सूफी शायर, हजरत निजामुद्दीन
औलिया के शिष्य हजरत अमीर खुसरो के भाई पीर सामंती कव्वाल उर्फ शम्स कव्वाल भी
दिल्ली घराने की संगीत परंपरा से संबद्ध थे। इस परंपरा में तानरस खां एक श्रेष्ठ
गायक हुए जो कव्वाली और खयाल दोनों ही समान अधिकार से गाते थे। इनका असली नाम
कुतुब बख्श था, किंतु अपनी रसभीनी तानों के कारण ये तानरस
खां के नाम से प्रसिद्ध हुए। ये अंतिम मुगल बादशाह बहादुरशाह जफर के दरबारी गायक
थे। तानरस खां के गायन से खुश और प्रभावित होकर बहादुरशाह जफर ने उन्हें पुरानी
दिल्ली के चांदनी महल में रहने के लिये स्थान दिया था। आज भी यह स्थान गली तानरस
खां के नाम से प्रसिद्ध है। सन् 1857 में स्वतंत्रता संग्राम
की पहली लड़ाई की राजनीतिक उथल-पुथल के बाद हैदराबाद के नवाब के विशेष आमंत्रण पर
उस्ताद तानरस खां हैदराबाद चले गये थे। वहीं 1890 में उनका
इंतेकाल हुआ। हैदराबाद में शाह खामोश साहब की दरगाह के बाग में इनका मजार है।
इन
सारी बातों का सूक्ष्मता से अध्ययन करने पर स्पष्ट होता है कि कव्वाली शब्द की
व्युत्पति अरबी के कौल शब्द- जिसका अर्थ वचन या उपदेश है- को लेकर जिस गेय विधा की
रचना हुई- वह- कव्वाली कहलाई-और-उसे गाने वालों को कव्वाल कहा गया। चूंकि, यह एक धार्मिक विधा थी, इसलिए इसके लिए कुछ नियम और
प्रतिबंध बने। कव्वाली गाने के लिए गायक का वयस्क होना अनिवार्य था, और इसे सिर्फ पुरुष ही गा सकते थे। उस कालखंड में महिलाओं को कव्वाली गाने
की अनुमति नहीं थी। इसका गायन पीरों, पैगंबरों की मजारों और
दरगाहों पर ही होता था, और विषयवस्तु धार्मिक ही हुआ करती थी।
कव्वाली गायन शैली का सृजन भारत की सरजमीं पर ही हुआ। कौल शब्द भले ही अरब या फारस
से आया हो, कव्वाली तो भारत की ही देन है। यह यहीं जन्मीं,
पली और बढ़ी। आज भी यह भारत के अलावा पाकिस्तान और बांग्लादेश तक ही
सीमित है जो कभी भारत के ही भाग थे।
यहां
यह विशेष रूप से उल्लेखनीय है कि दुनिया भर का संगीत अपने शुरुआती दौर में भक्ति
संगीत ही था.... कव्वाली भी इससे अलग नहीं है। इसीलिए इस्लाम में संगीत को बहुत
महत्व न मिलने के बावजूद चिश्ती परंपरा के सूफियों ने संगीत को हाथों हाथ लिया...
गले लगाया। हजरत निजामुद्दीन औलिया, कुतुब शाह, शेख सलीम चिश्ती, शेख मुईनुद्दीन चिश्ती, खम्मन पीर आदि के दरगाहों पर, मजारों पर शुरू से अब
तक कव्वाली गायन होता रहा है... आज भी हो रहा है। और, वहां
वे ही कव्वालियां गाई जा रहीं हैं- जिन्हें गाने के लिए- भारत की सामूहिक संकीर्तन
परंपरा से प्रभावित होकर कव्वाली गायन की शुरुआत की गई.... बल्कि, इसका आविष्कार किया गया। और, जिसका श्रेय हजरत अमीर
खुसरो तथा उनके छोटे भाई शम्स कव्वाल को दिया गया।
लेकिन,
संगीत समय और समाज से जुड़ी हुई कला है। इसलिए बदलते समय और समाज का
प्रभाव संगीत पर पड़ता ही है। इसी प्रभाव के कारण धु्रवपद, धमार
और खयाल गायन की विषयवस्तु भी बदली और फिर कव्वाली की। भारत को आजादी मिलने के बाद
कव्वाली गायन ने भी रंगमंच पर प्रवेश किया। चूंकि कव्वाली के अंतर्गत भी द्रुत
खयाल और ग़ज़ल जैसी रचनाएँ गाई जाती हैं, और खयाल तथा ग़ज़ल के
साहित्य में तब तक अच्छा खासा बदलाव हो चुका था, अतः कव्वाली
भी उसी रास्ते पर चल पड़ी। हुस्न और इश्क, शराब और शबाब ने
कव्वाल गायकों को भी अपनी ओर आकर्षित करना आरंभ कर दिया। बस! फिर क्या था? उसी तर्ज पर कव्वालियां लिखी और गाई जाने लगीं। और यहाँ यह लिखना ग़लत नहीं
होगा कि कव्वाली- गायन- साहित्य और संगीत- पद और गायकी दोनों ही दृष्टि से दो
भागों में विभक्त हो गया। एक तो बदस्तूर दरगाहों और मजारों पर पीरों, पैगंबरों की शान में श्रद्धा और भक्ति से गाई जाती रही। जबकि, दूसरी- मंचों, महफिलों और फिल्मों में गाई जाने लगी।
और, तभी एक महत्वपूर्ण बदलाव- यह भी हुआ कि मंचों, महफिलों ओर फिल्मों में कव्वाली गायन के क्षेत्र में महिलाओं ने भी पूरे
दमखम के साथ पदार्पण किया।
जब
कव्वाली की लोकप्रियता बढ़ने लगी तो फिल्मकारों ने भी इसे भुनाने की कोशिशें शुरू कर दी, क्योंकि, कव्वाली चाहे जिस भी अंदाज में गाई गई लोगों को पसंद तो खूब आई- इसमें कोई
मतभेद, कोई विवाद कभी नहीं रहा। मुगल-ए-आज़म फिल्म की
कव्वाली- जब रात हो ऐसी मतवाली तो सुबह का आलम का होगा/वक़्त फिल्म की
कव्वाली-ओ-मेरी जोहराजबी तुझे मालूम नहीं, तू अभी तक है हसीं
और मैं जवां, तुझपे कुर्बान मेरी जान, मेरी
जान मेरी जान/ बरसात फिल्म की कव्वाली ना तो कारवां की तलाश है। अलहिलाल फिल्म की कव्वाली- हमें तो लूट लिया।
चैदहवीं का चांद फिल्म की कव्वाली- शरमा के अगर यूं पर्दानशीं/ द बर्निंग ट्रेन की
कव्वाली- पल दो पल का साथ हमारा/ हम किसी से कम नहीं फिल्म की कव्वाली- हम किसी से
कम नहीं। अमर अकबर एंथोनी फिल्म की कव्वाली- जो शिर्डी वाले साईं बाबा के लिए गाई
गई थी- तेरे दर पे आए हैं कुछ करके जाएंगे। कुली फिल्म की कव्वाली हाजी अली। माई
नेम इज खान फिल्म की कव्वाली- अल्लाह ही रहमान, मौला-मौला ही
रहमान। फिल्म रॉकस्टार की कव्वाली- कुन फायाकुन/ फिल्म बीरजा़रा की कव्वाली- आया
तेरे दर पे दीवाना/ फिल्म कलयुग की कव्वाली- जिया धड़क-धड़क जाए। फिल्म फन्ने खां की
कव्वाली- ये जो हल्का-हल्का सरूर है/ फिल्म बजरंगी भाईजान की कव्वाली- भर दो झोली।
कुछ फिल्मी कव्वालियां ऐसी भी हैं- जो पहले व्यक्तिगत ध्वनि मुद्रिकाओं (प्राइवेट
अलबम्स) के माध्यम से लोकप्रिय हुईं और फिर फिल्म वालों ने उन्हें बाद में अपनी
फिल्मों में स्थान दिया। फिल्म फन्ने खां की कव्वाली- ये जो हल्का-हल्का सरूर है।
इसी तरह की कव्वाली थी। 18वीं शताब्दी के पंजाबी सूफी संत
बाबा बुल्लेशाह द्वारा लिखित और बाद में उस्ताद नुसरत फतेह अली द्वारा गाई गई
मशूहर कव्वाली बाद में माधुरी दीक्षित अभिनीत फिल्म याराना में फिर से गाई गई-
मेरा पिया घर आया। इसी तरह अजय देवगन निर्देशित फिल्म रेड में- नुसरत फतेह अली
द्वारा एक महफिल में और बाद में उनकी ध्वनि मुद्रिका में गाई गई मशहूर कव्वाली-
सानू इक पल चैन न आवे- को शामिल किया गया। कव्वाली गीतों की लोकप्रियता और सफलता
से प्रेरित होकर कुछ अन्य गीतों को भी कव्वाली की तर्ज़ पर पेश किया गया है।
उदाहरणस्वरुप राजेंद्र कुमार, साधना और अमिता अभिनीत तथा
उस्ताद नौशाद अली संगीत निर्देशन से सजी पुरानी फिल्म मेरे महबूब के लोकप्रिय गीत-
मेरे महबूब में क्या नहीं, क्या नहीं, क्या
नहीं, वो तो लाखों मे है एक हसीं। का नाम लिया जा सकता है।
एक और गीत याद आ रहा है फिल्म दूल्हे राजा का- छछूंदर के सिर में ना भाये चमेली,
कहां राजा भोज कहां गंगू तेली। आदि ने फिल्मों की सफलता में खासा
योगदान दिया है। इसी समय कव्वाली के साथ बजने वाले वाद्य यंत्रों में भी क्रांतिकारी
बदलाव देखने को मिला। पहले केवल तबला और हारमोनियम के सहारे गायी जाने वाली
कव्वाली के साथ इन दिनों ढे़र सारे हिन्दुस्तानी और पश्चिमी वाद्य यंत्रों का
प्रयोग खुलकर हो रहा हैं।
कव्वाली का आविष्कार तेरहवीं शताब्दी में हो चुका
था। आज हम इक्कीसवीं शताब्दी में प्रवेश कर चुके हैं। अर्थात् कव्वाली को आविष्कृत
हुए 800 वर्ष बीत चुके है। लेकिन यह चिंता और खोज का विषय है कि इन 800 वर्षों में अपनी लोकप्रियता और स्तरीयता के बावजूद, मज़ारों, दरगाहों, मंचों और
फिल्मों में सफलता के झंडा गाड़ने के बावजूद कव्वाली कभी-भी- गायन की, संगीत की मुख्यधारा में शामिल नहीं हो पाया। क्यों? इस
प्रश्न का उत्तर कव्वाल गायकों को ढूंढ़ना होगा। उन्हें आकाशवाणी और दूरदर्शन पर भी
कार्यक्रम के अवसर मिल रहे हैं, सरकार की ओर से उन्हें
विदेशों में भी कार्यक्रम प्रस्तुति के लिए भेजा जा रहा है। उन्हें प्रादेशिक और
केंद्रीय संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार सहित पद्म के अलंकरणों से भी नवाज़ा जा रहा
है.... उन्हें उड़ने के लिये सारा आकाश सौंप दिया गया है, फिर
भी उन्होंने अपने पंखों को बांध रखा है... क्यों.... आखिर क्यों?
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