...ये भी कोई तरीका है!
ऐसा लग रहा है जैसे अभी कल की ही तो बात है और आज
एकदम से सन्न कर देने वाली यह सूचना मिली - मनोज जी (प्रो. मनोज कुमार सिंह) नहीं रहे। दस पंद्रह दिन पहले उनसे बात हुई थी। तब वह बिलकुल स्वस्थ
और सामान्य लग रहे थे। हमारी बातचीत कभी भी एक घंटे से कम की नहीं होती थी। फोन पर
बात करते हुए पता ही नहीं चलता था कि बात कितनी लंबी खिंच गई।
वे ऐसा ही मेरा भी एक संग्रह देखना चाहते थे।
मेरे एक संग्रह के लिए उन्होंने कवर का चित्र बनाया भी। लेकिन न तो वह संग्रह आ
पाया और न चित्र। नहीं, उसमें हमारी ओर से कोई ढिलाई नहीं थी। दोनों
भाइयों ने अपना-अपना काम बड़ी शिद्दत से किया था लेकिन प्रकाशक तो प्रकाशक ही होता
है। हिंदी में जिसने प्रकाशक को जान लिया, वह ब्रह्म को जानने
वाले से बड़ा जानकार है।
मनोज जी मेरे लिए न तो शिक्षक हैं, न चित्रकार, न मित्र। इन तीनों के मिले-जुले रूप हैं। जब तक
मैं गोरखपुर में रहा, हमारा उनका संबंध पारिवारिक सदस्यों जैसा रहा।
चित्रकला की आज मेरी जो कुछ भी समझ है, वह मुख्यतः दो
व्यक्तियों की देन है। एक - श्री सतीश कुमार जैन, वह भी ऐसे ही अचानक चले गए। अपना शहर छोड़कर रिटायरमेंट के बाद इंदौर
चले गए थे। प्रैक्टिकली चित्रकला की बारीकियां मैंने सतीश जी से ही जानी थीं और
उसका सारा अकादमिक ज्ञान मनोज जी से पाया। दोनों तरह का यह पूरा ज्ञान किसी
औपचारिक सेशन में नहीं मिला। ऐसे ही घूमते-फिरते, चाय-पानी पीते, हंसी-मजाक करते... निहायत अनौपचारिक खालिस देसी
अंदाज में।
बिहार के मिथिलांचल की यह प्रतिभा काशी हिंदू
विश्वविद्यालय में तराशे जाने के बाद गोरखपुर में आकर जमी थी। विश्वविद्यालय में
कई जिम्मेदारियों का निर्वाह करते हुए भी अपनी कला साधना उन्होंने निरंतर जारी
रखी। मैं कभी कला का न तो औपचारिक छात्र रहा और न उसमें मेरी कोई गति रही। मेरा
कुल लगाव केवल सुरुचि के स्तर का था, बस। जिज्ञासाएँ बहुत
थीं और उन्हीं जिज्ञासाओं के नाते मनोज जी से अकसर मिलना होता था और यह मिलना
धीरे-धीरे प्रगाढ़ मित्रता में बदल गया। उन्होंने मुझे चित्रकला से जुड़े कई विषयों पर
लिखने के लिए बार-बार प्रेरित किया। इससे भी बड़ी बात यह है कि चित्रकला के मामले में
डॉ. मनोज मेरे अपने आत्मविश्वास थे। जब भी इस दिशा में कोई काम करना होता, मैं कई बार डॉ. मनोज के बूते जिम्मेदारी ले लेता और
उसे पूरा भी कर देता। इस बात का पूरा विश्वास था कि जो मैं नहीं जानता, वह मनोज जी
से जान लूंगा। अब वह आत्मविश्वास....!!!
गाजियाबाद आने के बाद से अक्सर उनसे फोन पर बात
हुआ करती थी। पिछले दिनों उन्होंने एक आयोजन किया था पेंटिंग्स की प्रदर्शनी का।
नई दिल्ली की आइफैक्स गैलरी में। उसके लिए ब्रोशर भी मैंने ही लिखा था। मुलाकात भी
हुई और हम लोग उस दिन काफी देर तक साथ रहे। अखिलेश भैया (श्री अखिलेश मिश्र) भी वहीं मिले। हम लोग बड़ी देर तक दुनिया भर
की यादें ताज़ा करते रहे।
उसके बाद जब जब बात हुई, कहीं अलग, दुनियावी आपाधापी से दूर यही तीन लोगों के एक साथ
बैठने की योजना बार-बार बनी और बिगड़ी, लेकिन यह योजना
परवान नहीं चढ़ पाई। इसी बीच यह त्रासद दौर आ टपका - कोविड 19 का। सब कुछ थम गया। इसके बावजूद हमारी बातों से वह प्लान नहीं गया। पर
अब?
हालांकि डायबटीज उन्हें काफी पहले से था, लेकिन यह कोई खतरनाक स्तर पर नहीं था। उस दिन तक न तो कोविड की कोई
बात थी और न कोई लक्षण। पर अचानक कब क्या हुआ??
ना, न तो मैं अलविदा कहूंगा
और न श्रद्धांजलि।
भला ये भी कोई तरीका है सब कुछ छोड़कर औचक निकल
लेने का!
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