समीक्षा
इतिहास के आईने में आज़मगढ़
-हरिशंकर राढ़ी
भूलना इंसान की फितरत है, किंतु पिछले कुछ दशकों से वैश्वीकरण की ऐसी तेज हवा चली कि हम अपनी
मिट्टी और अपनी पहचान को ही लगभग पूरी तरह से भूलने लग गए हैं। आधुनिकता की दौड़
में अपने इतिहास को भूल जाना किसी की मजबूरी तो किसी के लिए आधुनिकताबोध होता है।
किंतु यह भी सत्य है कि अपने इतिहास से उखड़कर कोई भी समाज गौरव की प्राप्ति नहीं
कर सकता। हाल यह है कि वैश्विक इतिहास, भूगोल एवं व्यापार की प्राथमिकता में हम अपने निजी भौगोलिक क्षेत्र
के इतिहास को उपेक्षित कर बैठे। आज हम अपने गाँव और जनपद की बात तो क्या करें, अपने प्रदेश का इतिहास पढ़ना उचित नहीं समझते। ऐसे परिवेश में यदि
किसी जिले का शोधपूर्ण, वृहद और रोचक इतिहास पढ़ने को मिल
जाए तो कहना ही क्या! एक ऐसी ही सुखद अनुभूति से मेरा गुजरना इन दिनों हुआ जब
प्रताप गोपेन्द्र यादव द्वारा लिखित पुस्तक ‘इतिहास के आईने में आज़मगढ़’ पढ़ने को मिली। यह दावे के साथ कहा जा सकता है कि किसी एक जनपदीय
इकाई पर इतने आधिकारिक और विस्तार से लिखित इतिहासों की शृंखला में यह पुस्तक
अग्रणी है।
निस्संदेह एक सामान्य पाठक के लिए
किसी एक जिले का इतिहास उतना रुचिकर या महत्त्वपूर्ण नहीं होगा जितना कि राष्ट्रीय
या अंतर्राष्ट्रीय इतिहास। लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि छोटी से छोटी इकाई
का अपना ऐतिहासिक महत्त्व होता है और राष्ट्रीय पहचान एवं विकास में योगदान।
क्षेत्रीय इतिहास भी इतिहास की समग्रता का एक हिस्सा होता है जिसके आधार पर हम
स्वयं को शिक्षित एवं सभ्य होने का दावा कर सकते हैं। हाँ, यह भी सच है कि क्षेत्रीय इतिहास के प्रति जितना झुकाव उस क्षेत्र
के लोगों का होगा, उतना दूरस्थ लोगों का नहीं। लेकिन
इसकी स्वीकार्यता व्यापक करने में लेखक की शोध क्षमता, दृष्टिकोण एवं भाषा-शैली का बहुत बड़ा योगदान होता है। ‘इतिहास के आईने में आज़मगढ़’ के लेखक प्रताप गोपेंद्र के लेखन में ये तमाम गुण इस तरह दिखते हैं
कि पूर्वी उत्तर प्रदेश के एक उपेक्षित जिले आज़मगढ़ के इतिहास को उन्होंने बहुत बड़ा
फलक दे दिया है।
‘इतिहास के आईने में आज़मगढ़’ जनपद आज़मगढ़ को समग्रता में प्रस्तुत करने का प्रयास करती है। यह
जनपद के इतिहास को विभिन्न आधारों एवं साक्ष्यों के बल पर यथासंभव उस काल से
खँगालती है जब आज़मगढ़ का उल्लेख कहीं नहीं मिलता। इतिहास लेखन में कालक्रम आधार के
रूप में कार्य करता है और इस पुस्तक के लेखक ने भी कालक्रम को आधार बनाते हुए इसे
कुल 14 अध्यायों में बाँटा है। कालक्रम के
महत्त्व का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि यहाँ कथा पुराणकाल से प्रारंभ होती
है। ‘आज़मगढ: पुराण बनाम इतिहास’ इसका पहला अध्याय है। एक सामान्य से दिखने वाले जनपद को पौराणिक
आख्यानों में खोज पाना और कथाओं से संबंधित स्थानों की पहचान स्थापित कर पाना आसान
कार्य नहीं है। लेकिन प्रताप गोपेंद्र ने इस कार्य को बहुत हद तक कर दिखाया है। इस
अध्याय से गुजरते हुए एक सुखद एहसास होता है कि लेखक पौराणिक स्थलों को प्रचलित
कथाओं से जोड़ते हुए श्रद्धा के वशीभूत होकर किसी बात का अंधसमर्थक नहीं होता। उसे
आज़मगढ़ का प्रामाणिक इतिहास लिखना है, वह इस उद्देश्य को नहीं भूलता और परिणामस्वरूप जो ऐतिहासिक ग्रंथ
तैयार होता है, उसे आज़मगढ़ पर एक प्रामाणिक दस्तावेज
माना जा सकता है।
अध्यायों की औपचारिक शुरुआत से
पूर्व अलग-अलग लिखी भूमिकाओं में भी आज़मगढ़ के इतिहास पर संक्षेप में महत्त्वपूर्ण
प्रकाश डाला गया है। यह सच है कि जब भी आज़मगढ़ के इतिहास और साहित्य की चर्चा होगी, वह महापंडित राहुल सांकृत्यायन के अप्रतिम योगदान की चर्चा के बिना
पूरी ही नहीं होगी। प्रताप गोपेंद्र ने इस तथ्य को भलीभाँति रेखांकित करते हुए
प्राथमिक पृष्ठ उन्हें ही दिया है। इस पुस्तक की पहली भूमिका के रूप में राहुल
सांकृत्यायन के आज़मगढ़ विषयक एक लेख को दिया गया है जो इसे एक गंभीर शुरुआत देता
है। सैयद नजमुुल रजा रिज़वी, डाॅ. कन्हैया सिंह और जगदीश प्रसाद
बरनवाल ‘कुंद’ की भूमिकाएं सार्थक एवं उपयोगी हैं तो लेखक का प्राक्कथन व
प्रस्तावना आज़मगढ़ के इतिहास लेखन में उसके द्वारा की गई जद्दोजहद, खोजबीन, और यहाँ की मिट्टी से लगाव की कथा
को बहुत शिद्दत से उभारती है। वस्तुतः एक संक्षिप्त इतिहास तो लेखक ने इन्हीं दो
शीर्षकों में समावेशित कर दिया है।
आज़मगढ़ गंगा-यमुना के मैदान की
प्राचीनतम सभ्यताओं में एक रहा है। यहाँ की उपजाऊ मिट्टी, जल की सहज उपलब्धता और प्रचुर मानव संसाधन सभ्यता के विकास के लिए
उपयोगी कारक रहे होंगे। लेकिन इस सभ्यता का उद्भव और विकास किन सोपानों में हुआ, यह अल्पज्ञात और अप्रामाणिक ही चला आ रहा था। संभवतः पहली बार ऐसा
हुआ है जब किसी एक पुस्तक में सभ्यता के आदिकाल से आधुनिककाल तक के समय की सजग और
सार्थक पैमाइश की गई है। निःसंदेह, आज़मगढ़ के इतिहास
को अनेक लोगों ने लिखने का प्रयास किया है। उसमें कुछ प्रकाशित, कुछ अप्रकाशित और कुछ अज्ञात ही रह गया होगा किंतु इस पुस्तक में
लेखक इतनी शिद्दत से जुड़ा है कि वह बहुविध साक्ष्यों को जैसे खोद-खोदकर लाता है और
इस पुस्तक को आज़मगढ़ के समग्र इतिहास का रूप देने में सफल रहता है। यहाँ कहने का
तात्पर्य यह नहीं कि इस पुस्तक में आज़मगढ़ का समूचा इतिहास समा गया है, इसके अतिरिक्त कुछ शेष नहीं है और जो कुछ है वह सर्वथा प्रमाणित ही
है। हाँ, यह जरूर कहा जा सकता है कि जिस
प्रकार प्रताप गोपेंद्र ने सभ्यता के उदय से लेकर आजतक का आज़मगढ़ का इतिहास लिखा है, वह आज़मगढ़ के लिए एक थैले में प्राप्त सर्वाधिक उपयोगी दस्तावेज है।
पहले अध्याय से लेकर दसवें अध्याय
तक की सामग्री सर्वथा पुरातात्विक और ऐतिहासिक स्रोतों के सहारे चलती है। इसमें
खुदाई में मिली मूर्तियों, अवशेषों, मृदभांडों, ईंटों और सिक्कांे जैसे साक्ष्यांे
के आधार पर इतिहास को प्रमाणित करने का प्रयास किया गया है। ‘आज़मगढ़ में सभ्यता का उदय’, ‘बुद्धकालीन आज़मगढ’ और ‘कुषाणकालीन आज़मगढ़’ जैसे अध्याय इसकी
पुरातनता को प्रदर्शित करते हैं। यह हिस्सा शोधार्थियों एवं पुरातात्विक विद्वानों
के लिए बहुत उपयोगी हो सकता है। एक सामान्य पाठक या आज़मगढ़ी के लिए इन्हें झेल पाना
संभवतः सहज नहीं होगा किंतु ग्यारहवें अध्याय ‘ब्रिटिशकालीन आज़मगढ़’ से इतिहास में रोचकता आने लगती है। यह वह काल है जहाँ से लिखित
इतिहास और हमारा परिचित जीवन शुरू होता है। बारहवें अध्याय ‘सन् सत्तावन का विप्लवी आज़मगढ’ में आते-आते पाठक रोमांचित होने लगता है। यहाँ लगता है कि
पाठ्यक्रमों में पढ़ाई गई आजादी की लड़ाई से वास्तविक लड़ाई कितनी बड़ी थी। कितना कुछ
अनकहा और अनलिखा रह गया क्योंकि अधिकांश स्वतंत्रता सेनानी ऐसे रहे जिनके साथ कोई
टैग नहीं लगा था। आज़मगढ़ के गाँव-गाँव में आजादी की अलख जगी थी जो राष्ट्रीय फलक पर
सुनाई देने से वंचित रह गई। अगले अध्याय ‘आज़मगढ़ में स्वतंत्रता संग्राम’ को पढ़कर आज़मगढ़ का सामान्य निवासी गर्व की अनुभूति जरूर करेगा कि
उसके जनपद के पूर्वजों ने आजादी की लड़ाई में जमकर हिस्सा लिया था और मातृभूमि के
लिए बलिदान में तत्पर रहे। अपने जवार की गौरवगाथा पढ़कर फख्र तो होता ही है। हाँ, इसके बाद भी यह कहा जा सकता है कि न जाने कितने स्वाधीनता
सेनानियों का जिक्र छूट ही गया होगा।
‘बीसवीं सदी के पूर्वाद्ध का आज़मगढ़’ अध्याय में आजादी के समय से पूर्व के आज़मगढ़ में जनजीवन कैसा था, इसकी झलक बहुत ही मोहक है। यहाँ लेखक जनपद की जीवनशैली, शिक्षा, लोकसंस्कृति, रहन-सहन, खान-पान, स्त्री दशा, छुआछूत, सामाजिक संबंध, खेलकूद, अखाड़ा, भाषा, ग्रामीण जीवन, साहित्य, संगीत एवं अन्यान्य विषयों को बड़ी शिद्दत और बड़ी सजीवता से
प्रस्तुत किया है। कहा जाए तो यह उस कालखंड का रंगीन बाईस्कोप है। इस खंड में
भाषा-शैली बहुत रोचक हो जाती है। जिन्होंने बीसवीं सदी का उत्तरार्ध देखा है और जो
उत्तर पीढ़ी के हैं, उन दोनों के लिए यह अध्याय बहुत
उपयोगी है। संदेह नहीं कि 1950 के बाद जन्मी पीढ़ी को नाॅस्टैल्जिक
बनाने में यह अध्याय पूरी तरह सक्षम है। यदि कुछ कमी रह भी जाती है तो परिशिष्ट के
अंतर्गत ‘लोकजीवन की झलकियाँ’ खंड में पूरी हो जाती है।
इस पुस्तक का विषय इतिहास भले हो
किंतु इसे लिखने में आधुनिक दृष्टि एवं शैली को आधार बनाया गया है। जैसे-जैसे हम
इसके पृष्ठों को पलटते हैं, हमें यह एहसास होता जाता है कि
तथ्यों का साक्ष्य एकत्रित करने में भगीरथ प्रयत्न किया गया है। मसौदा इतिहास का
हो और साक्ष्य-संदर्भ न हों तो प्रश्नचिह्नों का खड़ा होना स्वाभाविक है।
प्रश्नचिह्न तब और बड़े हो जाते हैं जब किसी कालखंड या स्थान विशेष का प्रामाणिक व
व्यापक इतिहास लिखने का प्रयास पहली बार किया जा रहा हो। लेकिन इस लेखक ने
प्रश्नचिह्नों को खड़ा होने का भरसक मौका नहीं दिया है। संदर्भ ग्रंथों की सूची तो
बहुत ही लंबी है जो यह साबित करने में समर्थ है कि लेखक ने इस ग्रंथ को लिखने में
प्रामाणिकता के स्तर पर कोई कसर नहीं उठा रखी है। संदर्भ सूची के साथ अंत में
शब्दानुक्रमणिका भी दी है जिससे संदर्भों को खोज पाना बहुत ही आसान हो गया है।
लेखक ने यथोपलब्ध पुराने छायाचित्रों को भी पुस्तक में समावेशित किया है। अंगरेजों
के जमाने के मधुबन और तरवाँ थाना, वेस्ली इंटर
काॅलेज, मिशन हाॅस्पीटल, 1932 की दीवानी कचहरी आदि के फोटो उस युग की याद दिलाने में समर्थ हैं।
दूसरी ओर आज़मगढ़ की अनेक मशहूर हस्तियों के छायाचित्र, हरिऔध की जन्मस्थली तथा उस जमाने के आज़मगढ़ चैक का छायाचित्र इस
पुस्तक को विशेष आकर्षण प्रदान करते हैं।
‘इतिहास के आईने में आज़मगढ़’ आज़मगढ़ के इतिहास पर ही नहीं, वहाँ के साहित्य और इतिहास लेखकों पर भी व्यापक दृष्टि डालती है और
उन्हें पाठक की दृष्टि में लाती है। विश्वनाथ लाल शैदा, अमरनाथ तिवारी, फूलचंद्र
त्रिपाठी, दयाशंकर मिश्र, परमेश्वरी लाल गुप्त जैसे अनेक लेखकों का जिक्र प्रताप गोपेंद्र
बहुत ईमानदारी से करते हैं जिससे ‘इतिहास के आईने
में आज़मगढ़’ की प्रामाणिकता ही नहीं बढ़ती, इन लेखकों को भी यथोचित सम्मान मिलता है। पुस्तक से गुजरते हुए
बार-बार लगता है कि लेखक की मानसिकता समावेशी है। इतिहास लेखन करते समय वह कहीं भी
पूर्वाग्रह से ग्रस्त नहीं होता, जैसा कि अपने देश
के तमाम इतिहासकार इस आरोप से ग्रस्त होते रहे हैं। वह अपना नज़रिया रखता जरूर है, किंतु उतना ही जितना किसी तथ्य को तर्क के आधार पर सिद्ध करने के
लिए जरूरी है। वैसे भी वह तथ्यों को उपलब्ध प्रमाणों से मज़बूत करने का प्रयास करता है, न कि तार्किक वकालत से। इसमें संदेह नहीं कि समावेशी मानसिकता के
कारण ही प्रताप गोपेंद्र ने साहित्य तक को प्रमाण के रूप में जगह-जगह उद्धृत किया
है। उदाहरण के लिए राहुल सांकृत्यायन की अनेक पुस्तकों का जिक्र आता है, चाहे वह उनकी आत्मकथा ‘कनैला की कथा’ हो या ‘सतमी के बच्चे’ जैसी कथा।
इसमें संदेह नहीं कि लेखक ने आज़मगढ़
के इतिहास की इस पुस्तक में आज़मगढ़ से संबंधित हर आयाम को कमोवेश छूने का प्रयास
किया है। यहाँ यह जोड़ते चलना आवश्यक है कि इसमें आज के मऊ जनपद को भी पूरा हिस्सा
मिला है। एक स्वतंत्र जिले के रूप में मऊ का अस्तित्व 1988 में आया था। क्योंकि यह पुस्तक लगभग इसी काल तक का इतिहास बताती है, इसलिए मऊ का इतिहास सम्मिलित है। मऊ, मुबारकपुर, घोसी, कोपागंज, दोहरीघाट आदि कस्बों के बगैर आज़मगढ़
इतिहास किसी भी कीमत पर पूरा नहीं हो सकता, इसलिए इनके प्रसंग इस पुस्तक में बार-बार आते रहते हैं। आज़मगढ़
प्रताप गोपेंद्र की जन्मभूमि है, इसलिए वह स्वयं
को यहाँ की हर कथा, हर कण से जोड़कर चलते हैं। यदि
भावनात्मक लगाव इतना अधिक होगा तो उसकी झलक कृति में मिलेगी ही। यह शिद्दत ही
आज़मगढ़ के इस इतिहास लेखन को इतना प्रभावशाली बना पाती है। ‘इतिहास के आईने में आज़मगढ़’ एक वास्तविक शोधग्रंथ है जो निश्चित रूप से भविष्य में उद्धृत किया
जाएगा, एक सा्रेत के रूप में देखा जाएगा और
आज़मगढ़ जनपद को इतिहास में मजबूती से स्थापित करेगा। हक़ीकत तो यह है कि आज़मगढ़ के
सभी निवासियों एवं आज़मगढ़ में रुचि रखने वाले हर व्यक्ति को यह पुस्तक जरूर पढ़नी
चाहिए। वस्तुतः आज़मगढ़ के बहाने यह शताब्दियों के लंबे कालखंड एवं लगभग पूरे उत्तर
प्रदेश के जीवन को प्रतिबिंबित करता है।
पुस्तक का नाम: इतिहास के आईने में
आज़मगढ़ (इतिहास)
लेखक: प्रताप गोपेंद्र यादव
प्रकाशक: यूनिवर्सिटी पब्लिकेशंस
22/4735, प्रकाश दीप बिल्डिंग
अंसारी रोड, दरियागंज, नई दिल्ली - 110002
पृष्ठ: 386 (34 पृष्ठ अतिरिक्त) मूल्य: 475/ (पेपर बैक)
पौराणिकता,सभ्यता, आज़ादी,संस्कृति, जीवनशैली, भाईचारा सबका समावेश है इस पुस्तक में । सच मे यह आज़मगढ़ के बारे में रुचि रखने वाले इतिहास में रुचि रखने वाले लोगो के लिए आईना ही है यह किताब । आप जैसे जैसे इसके पैन पलते जाएंगे आपकी की रुचि इसको पढ़ने की बढ़ती जाएगी । इसके लिए लेखक प्रताप गोपेन्द्र को हम दिल से धन्यवाद देते हुए आशा करते हों कि उनकी लेखनी अनवरत चलती रहे जो समाज को नई दिशा दे सके । धन्यवाद ।
ReplyDeleteबहुत अच्छी समीक्षा। इतिहास की सारगर्भित प्रस्तुति करने वाली ऐसी कृतियों की महती आवश्यकता है।
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