बयानों के आलोक में किसान आंदोलन
इष्ट देव सांकृत्यायन
सरकार को हजारों किसानों की लाशों से गुजरना होगा - ये बयान है राकेश टिकैत का, 26 जनवरी से पहले।
सरकार ने गोली क्यों नहीं चलाई - ये सवाल है राकेश टिकैत का, 26 जनवरी की इंतहाई बेहूदगी के बाद।
सोचिए, राकेश टिकैत और उनके जैसे लोग क्या कर रहे हैं और किनके साथ खड़े हैं।
वे राजनीति के चूल्हे पर अपनी रोटी सेंकने के लिए उन्हीं लोगों को लाशों में तब्दील करने पर तुले हैं जो किसी भ्रम, किसी मामूली लालच या किसी तरह के बहकावे में उनके साथ आ गए हैं। ये न सोचिए कि किसी के मरने के बाद वे किसी के काम आएंगे। न तो उन्हें किसी किसान से कुछ लेना-देना है और न उसके परिवार से। अगर किसान से उनका मतलब होता तो वे उन बिचौलियों से लड़ते जो किसान की पांच रुपये की उपज उपभोक्ता तक 30-40 रुपये में पहुंचाते हैं और बीच के 25-35 रुपये अपनी जेब के हवाले करते हैं।
पैदा करने वाला किसान गरीब का गरीब रह जाता है। कर्ज से दबता चला जाता है। खरीदने वाला उपभोक्ता अलग कर्ज से दबता जाता है। जेब ढीली होने के चलते। बीच का बिचौलिया देखते-देखते अरबपति बन जाता है।
राकेश टिकैत और उनके जैसे कई स्वयंभू नेता उन्हीं बिचैलियों के साथ खड़े हैं लेकिन अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए जान वे किसान की लेना चाहते हैं। यही काम जिंदगी भर उनके पिताश्री ने भी किया। वरना सोचिए, अगर महेंद्र सिंह टिकैत, चौधरी चरण सिंह, चौधरी अजित सिंह, शरद पवार और राकेश टिकैत जैसे लोगो की राजनीति वाकई किसानों के लिए थी या है, तो किसान की यह दुर्दशा क्यों है?
ये वही लोग हैं जो कहते हैं कि किसान कर्ज के नाते आत्महत्या कर रहा है। राजनीति के चूल्हे पर अपनी रोटी सेंकने के लिए खुद रस्सा थमा कर किसान को पेड़ पर चढ़ा भी देते हैं और उसकी गर्दन फंसा कर लटका भी देते हैं। इस तरह सीधे हत्या करके किसान को पहले तो आत्महत्या के लिए दोषी ठहरा देते हैं और फिर सरकार के खिलाफ नारेबाजी करते हैं।
सोचिए, आप किन लोगों के साथ खड़े हैं! वही न, जो आपकी हत्या करके आपको ही आत्महत्या का दोषी ठहरा देते हैं। बयानों से जाहिर है कि राकेश टिकैत और उनके आकाओं की मंशा 26 जनवरी को यही थी।
वरना बताइए, ट्रैक्टर परेड का जो ऐतिहासिक रूप से बेहद विकराल रूप आपने देखा था, याद है न! सोचिए, कोई किसान कभी इस तरह ट्रैक्टर चलाता है क्या? किसान एक ट्रैक्टर लेने के बाद कम से कम पाँच साल तक दिन-रात मेहनत करता है और तब जाकर उसका कर्ज भर पाता है।
ट्रैक्टर की एक किसान के घर में कितनी इज्जत होती है, यह अगर आप किसान हैं तो खुद जानते होंगे। या फिर आपको मेरे जैसे लोग बता सकते हैं जो उसी पृष्ठभूमि से आए हैं और जो अपने को किसान ही समझते हैं। क्योंकि हम चाहे कुछ भी हो जाएं, हमारी संवेदना मूलतः किसान की संवेदना है। क्या आप उम्मीद करते हैं कि वह किसान इतनी बेदर्दी से अपना ट्रैक्टर इस्तेमाल करेगा? इस तरह वह उसे पूरी रफ्तार में और बेहिचक गड्ढे में कुदाएगा कि सब कुछ टूट जाए? यहाँ तक कि उसकी जान भी चली जाए? वही ट्रैक्टर, जिसका कर्ज भरने के लिए वह दिन रात एक किए हुए है? जाहिर है, भूले भटके कुछ लोगों की बात छोड़ दें न तो व्यक्ति के रूप में इसमें किसान शामिल हुए और न उनके ट्रैक्टर। क्योंकि किसान इस तरह बेवजह अपना ट्रैक्टर फूंकने नहीं आएगा।
इतनी बड़ी संख्या में अगर ट्रैक्टर शामिल हुए और उन्हें इस तरह कुदाया गया, यहाँ तक कि फूंका भी गया, तो जाहिर है कि उनके कागज किसी के नाम बने हों, पर उसकी फंडिंग कहीं और से हुई है। कहाँ से, यह भी स्पष्ट हो चुका है। रिहाना और मियाँ खलीफा के बयानों और ग्रेटिना ग्रैंडा के ट्वीट के बाद किसी को बताने के लिए कुछ बचा नहीं रह गया है। पोएटिक जस्टिस फाउंडेशन से भी बहुत पहले ऑक्सफोर्ड एनलिटिका की मंशा जाहिर हो चुकी है।
इन सब तथ्यों को जानने के बाद यह साफ है कि यह तथाकथित आंदोलन वास्तव में किसानों के खिलाफ बिचौलियों का आंदोलन था। बल्कि आंदोलन के नाम पर सीधे तौर पर देशद्रोही गुंडागर्दी। उन्हीं बिचौलियों का जो किसान की मेहनत का हिस्सा मारते हैं। यह अलग बात है कि हजार दो हजार रुपये के लिए या कुछ ऐहिक सुखों के लोभ में कुछ किसानों के भूले-भटके बच्चे भी आ गए हों। लेकिन न तो आंदोलन के नाम पर चल रही यह अराजकता किसानों की है और न इससे किसानों का कोई लेना-देना है। किसान ऐसी अराजक हरकत कर ही नहीं सकता।
आंदोलन जैसे पवित्र शब्द को बदनाम कर रही यह अराजकता सदियों से किसानों का खून चूसने वालों की ओर से ही प्रायोजित है। केवल इस उद्देश्य से कि आगे भी सदियों तक वे ऐसे ही किसानों का खून चूसते रह सकें। और उसके लिए भी पानी और पेट्रोल के तौर पर भी वे किसानों के ही खून का ही इस्तेमाल करना चाहते हैं।
अगर आप इनका पक्ष ले रहे हैं तो आप खुद सोचिए कि आप किनके साथ हैं। उन्हीं के साथ जो आपके हितों के विरुद्ध अपने स्वार्थ के लिए आपकी जान लेना चाहते हैं! 26 जनवरी को लाल किला वाली अराजकता में अगर लोगों की जान बची तो वह केवल पुलिस की समझदारी के चलते। पुलिस ने गोली नहीं चलाई तो यह उसके धैर्य की चरमोत्कर्ष है, जिसमें सौभाग्य से वह पूरी तरह उत्तीर्ण हुई। वरना आंदोलन जैसे पवित्र शब्द की आड़ में आए गुंडों ने पुलिस को इस बात के लिए मजबूर करने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी।
सोचिए, अगर पुलिस की ओर से गोली चल गई होती तो क्या क्या होता? इस लिहाज से इन पर इस बात के लिए मुकदमा तो चलना चाहिए। कायदे से बयानों के आलोक में इन नेताओं पर लोगों को आत्महत्या के लिए उकसाने और पुलिस को गोली चलाने जैसे दोनों जघन्य कृत्यों के लिए मजबूर करने को लेकर मुकदमे चलने चाहिए। जब तक यह नहीं होगा नेता लोग ऐसे ही अपने निजी स्वार्थों की पूर्ति के लिए आपके प्राणों की आहुति लेते रहेंगे।
उपयोगी आलेख।
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