नर्मदा के ओंकारेश्वर

  -हरिशंकर राढ़ी


            

ओंकारेश्वर  मंदिर का एक दृश्य 

महाकाल नगरी उज्जैन कई बार जाने के बावजूद वहाँ से लगभग डेढ़ सौ किलोमीटर दूर नर्मदातट पर स्थित ओंकारेश्वर-ममलेश्वर ज्योतिर्लिंग की अब तक मात्र दो यात्राएँ ही हो पाईं। हाँ, इतना अवश्य है कि जब भी उज्जैन जाना होता है, ओंकारेश्वर का मनोरम वातावरण बहुत गंभीरता से बुलाता है। यदि एक बार ओंकारेश्वर और नर्मदा तट पर पहुँच गए तो लौटते समय दुबारा आने का लोभ वहीं से प्रारंभ हो जाता है। द्वादश ज्योर्तिलिंगों की यात्रा में अभी केदारनाथ का सौभाग्य नहीं मिला है। निःसंदेह केदारनाथ प्राकृतिक दृष्टि से सर्वाधिक समृद्ध होगा, किंतु अन्य ज्योतिर्लिंगों की बात की जाए तो जो प्राकृतिक रमणीयता ओंकारेश्वर में है, वह किसी अन्य में नहीं है। अपनी लघु पर्वतीय सीमाओं में कल-कल, छल-छल करती नर्मदा, प्रातःकाल नर्मदा के स्वच्छ जल में नहाते लोग, नदी के दोनों ओर ज्योतिर्लिंगों के रूप में स्वयंभू ओंकारेश्वर और ममलेश्वर ज्योतिर्लिंग जैसे पौराणिक स्थल प्रकृति और अध्यात्म का एक दुर्लभ दृश्य उपस्थित करते हैं।

महीना नवंबर का था जो यात्रा के लिए सर्वाधिक सुखद होता है। वे दिन कितने अच्छे थे। कोरोना नहीं था। स्वच्छंद होकर, बिना मास्क लगाए कुछ भी खाते-पीते घूम सकते थे। मैं सपत्नीक उपेंद्र जी सपरिवार के साथ उज्जैन पहुँच चुका था। रात्रिनिवास, महाकाल के दर्शन, भस्मारती, गढ़कालिका, सांदपनि आश्रम, देवी हरसिद्धि सहित क्षेत्रीय भ्रमण भी हो गया था। इस बार पहले से तय कर लिया था कि ओंकारेश्वर की यादों को ताजा करना है। इसलिए एक दिन का अतिरिक्त समय लेकर वापसी का आरक्षण इंदौर से कर लिया था। सुबह भस्मारती में सम्मिलित होने के बाद अल्पाहार करके हमने होटल छोड़ दिया और बड़ा ऑटोरिक्शा लेकर नानाखेड़ा बस अड्डा पहुँच गए। नानाखेड़ा बस अड्डा उज्जैन शहर से लगभग बाहर है जहाँ से ओंकारेश्वर की ओर जाने वाली बसें चलती हैं। मुझे यह भी कुछ अलग सा लगता है कि मध्यप्रदेश में अधिकांश बसें निजी क्षेत्र के अंतर्गत परिचालित होती हैं।


उज्जैन के नानाखेड़ा बस स्टैंड पर हरिशंकर राढ़ी

उज्जैन से ओंकारेश्वर यात्रा का आनंद इंदौर शहर पार कर लेने के बाद आता है। दरअसल, इंदौर से बड़वाह के बीच का मार्ग पहाड़ी क्षेत्र से गुजरता है। घाट की सड़कें हैं और मनोरम जंगल है। यद्यपि यहाँ के पहाड़ हिमालय की भाँति ऊँचे नहीं हैं, न ही खतरनाक मोड़ हैं और न विकट चढ़ाई, फिर भी पर्वतीय मार्ग पर यात्रा रोचक-रोमांचक होती है। खैर, हमारी बस ओंकारेश्वर मोड़ पहुँच गई। कंडक्टर ने हमें वहीं उतार दिया, जबकि उसने हमें सीधे ओंकारेश्वर के नाम पर बिठाया था। फिर कंडक्टर महोदय ने बताया कि वहाँ से वे हमें मैजिक टाइप की टैक्सी में ओंकारेश्वर भेजेंगे और खुद बस लेकर खंडवा चले जाएँगे। यानी वहाँ से ओंकारेश्वर तक के लिए उन्होंने हमें टैक्सीवालों को बेच दिया। कुछ जानकार लोग फटाफट टैक्सियों में ठुंस गए जबकि हम देखते रह गए। अब पाँच हम और दो-तीन अन्य सवारियाँ बची थीं। वे गाड़ी ठसाठस भरने का इंतजार करते रहे। चलिए, किसी तरह जब अंतिम स्थिति तक भर गए तो चले और जैसे-  तैसे हमें ओंकारेश्वर बस स्टैंड के पास उतार दिया।

मैं बीस साल पहले यहाँ आया था। यादें धुँधला गई थीं और परिवेश काफी बदल चुका था। बहुत कुछ याद नहीं आ रहा था। इतना याद था कि नर्मदा पर एक झूला पुल था जिसे पार करके हम ओंकारेश्वर मंदिर गए थे। उस बार हमें दिन में ही लौट जाना था। उस पुल के पास कुछ होटल और धर्मशालाएँ थीं, सोचा था कि वहीं कमरा लेकर रात्रि निवास करेंगे। पता तो यह भी चला था कि ओंकारेश्वर में गजानन संस्थान का यात्री निवास बहुत अच्छा और कम शुल्क पर है किंतु न तो उन्होंने फोन उठाया और न ऑटोवाले ने समर्थन किया।

कुछ देर आराम करके जब हम सभी ओंकारेश्वर मंदिर के लिए निकले तो उसी पुराने झूला पुल से गुजरे। जहाँ तक याद है, तब ब्रह्मपुरी घाट का नया झूला पुल नहीं बना था। धीरे-धीरे उन्नीस साल पहले की यादों के झरोखे खुलने लगे। वह मेरा पहला व्यवस्थित पर्यटन था। महाकालेश्वर के दर्शन के लिए उज्जैन जाना था। मैंने अपने मित्र तेज सिंह जी से बात की। वे मध्यप्रदेश के ही रहने वाले हैं। वे तैयार हो गए। मंडलेश्वर में निर्माणाधीन नर्मदा बाँध पर उनके बड़े भाई अभियंता थे किंतु कुछ माह पहले ही एक दुर्घटना में निधन हो गया था। तेजसिंह को वहाँ भी जाना था। इस प्रकार हमने एक लंबी योजना बनाई, जिसमें  ओंकारेश्वर तो जोड़ा ही, साथ में महेश्वर और मंडलेश्वर भी जोड़ लिया। पूरा कार्यक्रम बनाकर हमने रेल आरक्षण ले लिया था। एक रात उज्जैन में बिताने के बाद हम इंदौर होते हुए महेश्वर घूमकर मंडलेश्वर पहुँचे थे। उस यात्रा में जानकारी एवं अनुभव की कमी आजतक चुभती है। वह इंटरनेट का जमाना नहीं था, इसलिए बहुत कुछ मौके पर जाकर ही पता लगता था। कुछ तकलीफें आज भी याद हैं। दुख भी होता है और हँसी भी आती है। मैं पत्नी और दोनों बच्चों के अतिरिक्त भतीजे के साथ था। बेटी सात साल की थी तो बेटा दो साल का। तेजसिंह पत्नी एवं तीन बच्चों के साथ थे। उज्जैन में हमने मंदिर से सटी एक धर्मशाला ले ली थी। दिनभर तो धर्मशाला बहुत अच्छी लगी लेकिन रात में इतने मच्छर काटे की मारते-मारते धोती लाल हो गई थी।

ममलेश्वर सेतु                      छाया : हरिशंकर राढ़ी

तब सन् 2000 और महीना अप्रैल था। इंदौर से मुंबई मार्ग पर बस से धामनोद उतरकर महेश्वर हम दोपहर बाद पहुँचे थे। नर्मदाघाट पर स्थित महेश्वर मंदिर के दर्शन और अहल्या घाट की सुंदरता दोपहरी में देखकर मंडलेश्वर शाम तक पहुँचे थे। कर्क रेखा पर स्थित होने से उज्जैन और आसपास के इलाके अपेक्षाकृत अधिक गरम होते हैं। धूप और गर्मी असहनीय थी। उन दिनों मध्यप्रदेश में सड़कों का बहुत बुरा हाल था। धामनोद से बड़वाह मार्ग जैसा बुरा मार्ग मैंने न तब नहीं देखा था और न आजतक। ऐसे लगता जैसे जुते हुए खेत में चल रहे हैं। धूल इतनी कि पूरे रास्ते आँधी जैसा अनुभव होता रहा। अगली सुबह हम लोग मंडलेश्वर से बस पकड़कर ओंकारेश्वर पहुँचे थे। खैर, वह कहानी यहीं छोड़ता हूँ।

नर्मदा का पुराना झूला पुल पार करके गलियों से होते हुए हम ओंकारेश्वर मंदिर पहुँच गए। गली में ही बारी-बारी से न जाने कितने पंडित-पंडे कम दक्षिणा में पूजा-अभिषेक का प्रस्ताव लेकर पहुँचते रहे। मंदिर के पास पहुँचे तो एक युवा पंडित जी आए और बड़ी विनम्रता से बोले कि अभी मंदिर में दर्शनार्थियों की बहुत भीड़ है। अमुक स्थानीय पर्व है, इसलिए यह भीड़ एक-दो घंटे में छँट जाएगी। यह कि इस बीच हम ममलेश्वर के दर्शन कर आएँ, वहाँ भीड़ नहीं होगी। रात में आठ बजे के आसपास दर्शन सहजता से हो जाएगा। और यह कि यदि पूजा-अभिषेक करवाना है तो वे इच्छित दक्षिणा में कर देंगे। समूह का नेतृत्व मैं ही कर रहा था। उपरोक्त सुझाव अच्छा लगा, पंडित जी का कार्ड लेकर हम लोग ममलेश्वर के दर्शन को चल पड़े।

पिछली यात्रा में ममलेश्वर का दर्शन नहीं हो पाया था। न तो पूरी जानकारी थी और न समय। इस बार ममलेश्वर अपने कार्यक्रम में था। जब तक व्यक्ति स्वयं न घूम ले, तमाम जगहें उसे मुश्किल लगती हैं। ज्योतिर्लिंग परिचय में ही ओंकारेश्वर एवं ममलेश्वर को एक साथ जोड़कर लिखा गया है- ओङ्कारममलेश्वरम्। बस अंतर इतना ही है कि ओंकारेश्वर नर्मदा के उस पार है तो ममलेश्वर इस पार।

ममलेश्वर सेतु (नया झूला पुल) पार करके हम चलते-चलते ममलेश्वर मंदिर पहुँच गए। यहाँ मंदिर पहुँचने से पहले ही मंदिर की प्राचीनता और पौराणिकता का एहसास होने लगता है। पत्थर की उबड़-खाबड़ सीढ़ियाँ एवं गलियों का मोड़ बताता है कि यह मंदिर बहुकालपूजित है। कुछ दूर से ही ममलेश्वर मंदिर का शिखर दिखने लगता है। घंटा-घड़ियाल की आवाजें आने लगती हैं। फूल-माला-प्रसाद की दूकानों की पंक्ति तो दूर से ही शुरू हो जाती है, साथ में दूकानदारों का जोरदार आग्रह कि जूते-चप्पल यहीं उतारें और प्रसाद लेकर जाएँ।

ममलेश्वर मंदिर का बाह्य दृश्य :   हरिशंकर राढ़ी

ममलेश्वर मंदिर न केवल अपनी प्राचीनता और भव्यता से मन को बाँध लेता है, अपितु यहाँ का वातावरण भी। जब हम पहुँचे तो भीड़ बहुत कम थी। न कोई सुरक्षा जाँच का घेरा और न कोई तंग करने वाला। बहुत आराम से दर्शन हुआ। मुख्य मंदिर के द्वार के ठीक सामने नंदीश्वर की मूर्ति है। वहाँ भी लोग दर्शन में लगे थे। इसके बाद हमने आराम से मंदिर परिसर में घूम-घूमकर फोटो लिया। मंदिर के वास्तु एवं सौंदर्य का अवलोकन करने के बाद हम संतुष्टि के भाव से बाहर आए पास में एक चाय की दूकान पर बैठकर संध्याकाल का आनंद लेने लगे।

वस्तुतः ममलेश्वर ज्योतिर्लिंग ओंकारेश्वर का ही एक भाग है। इसके पीछे कुछ कथाएँ हैं जो शिवपुराण एवं अन्य ग्रंथों में मिलती हैं। एक कथा के अनुसार विंध्याचल पर्वत के स्वामी विंध्य को एक बार अहंकार हो गया कि मेरे पास सब कुछ है। देवर्षि नारद ने जब यह देखा तो विंध्य के अहंकार को तोड़ने के लिए कहा कि तुम्हारे शिखर मेरु पर्वत के समान उच्च नहीं हैं। यह जानकर विंध्य को पश्चात्ताप हुआ और उसने शिव की घोर तपस्या की। विंध्य ने रेत और मिट्टी से ज्यामितीय आकार का एक लिंग बनाया। कहा जाता है कि भगवान शिव उसकी भक्ति से प्रसन्न होकर दो रूपों में प्रकट हुए तथा ओंकारेश्वर एवं अमलेश्वर के रूप में स्थापित हो गए। मिट्टी की आकृति ऊँ आकार की थी, अतः नर्मदा के उत्तर तट पर स्थापित लिंग ओंकारेश्वर कहलाया।


ममलेश्वर का गर्भगृह और नंदीश्वर :    राढ़ी

    एक अन्य कथा के अनुसार इक्ष्वाकु वंशीय राजा मांधाता ने भगवान शिव की तपस्या तब तक की जब तक वे यहाँ ज्योतिर्लिंग के रूप में स्थापित नहीं हो गए। कुछ लोगों के अनुसार यह तपस्या उनके पुत्रों अंबरीश एवं मुचकुंद ने की। भगवान शिव के ज्योतिर्लिंग रूप में स्थापित हो जाने के बाद उस पर्वत का नामकरण मांधाता के रूप में किया गया। वैसे मांधाता पर्वत की आकृति ऊँ के आकार की है जो नर्मदा के जल से अभिसिंचित रहता है। कथाएँ और भी हैं जिनमें देवासुर संग्राम की कथा प्रचलित है। यह भी कहा जाता है कि आदि शंकराचार्य ने अपने गुरु गोविंद भगवत्पाद से यहीं एक गुफा में भेंट की थी। यह गुफा आज भी प्राप्य है। ममलेश्वर का आदि नाम अमलेश्वर था। इस मंदिर पर महारानी अहिल्याबाई होल्कर का विशेष अनुराग था और  लंबे समय तक मंदिर की पूजा-अर्चना की व्यवस्था उन्हीं के राजकोष से होती थी। वैसे मंदिरों के जीर्णोद्धार एवं व्यय में महारानी अहिल्याबाई होल्कर का योगदान अतुलनीय रहा है। यदि कहा जाए कि मध्य भारत के अधिकांश मंदिर उन्हीं के योगदान से बचे हैं तो अतिशयोक्ति नहीं होगी।

बहुत काल तक ओंकारेश्वर और मांधाता क्षेत्र भील राजाओं के अधिकार में था। बाद में अंगरेजों सहित प्रशासनिक परिवर्तन होते रहे। आज भी विशेष अवसरों पर भील समुदाय ओंकारेश्वर में पूजा के लिए आता है। जब-जब ये क्षेत्रीय जनसमूह ओंकारेश्वर जलाभिषेक के लिए आते हैं तो भीड़ का पारावार नहीं रहता।

ममलेश्वर से दर्शन करके हम ममलेश्वर सेतु की तरफ आए तो लगा कि यहाँ कोई मेला लगा है। हमारे पास समय की कमी नहीं थी और पैदल चलने में समस्या नहीं। तो फिर क्यों न मेला ही घूम लिया जाए? बहुत दिनों बाद ग्रामीण या कस्बाई मेले का साक्षात्कार हो रहा था। बचपन और किशोरावस्था में न जाने कितने मेलों का आनंद लिया था। सड़क के दोनों ओर ठेले, रेहड़ी, घेरे में छोटी-बड़ी रंग-बिरंगी दूकानें लगी थीं। एकदम देशी माहौल के सामान के साथ फ़ैन्सी कपड़े, महिलाओं के शृंगार के सामान, चाट-पकौड़े और भोजन के ढाबे तक चल रहे थे। इधर-उधर पूरा नयनलाभ लेते हुए हम बहुत दूर तक गए। वापसी में कुछ खाया भी। रात हो गई थी और नर्मदा से लेकर मेले तक ओंकारेश्वर जगमग कर रहा था। बिजली के लैंपों का प्रकाश नर्मदा में पड़ रहा था और वह उसी भाव से प्रकाश को वापस कर दे रही थी। नर्मदा के घाट पर रात में बैठे रहे। लोग नहा भी रहे थे। उस समय तो नहीं, लेकिन अगले दिन नहाने का मन बनाकर हम ओंकारेश्वर दर्शन के लिए चल पड़े।

ममलेश्वर मंदिर में लेखक श्रीमती जी  शशि  के साथ        

रात में दर्शन बड़ी सहजता से हो गया। अच्छा लगा। कुछ देर तक वहीं बैठे रहे, समय और अपनी उपस्थिति को महसूस करते रहे। बाहर निकले तो ओंकारेश्वर शहर की छटा देखते लायक थी। आप जितनी ऊँचाई से ओंकारेश्वर को रात में देखेंगे, उतना ही सुंदर लगेगा। अच्छी बीती वह रात, बिलकुल शांत और सुखद।

हमारा अगला सूर्योदय नर्मदा के ब्रह्मघाट पर था। सूर्योदय प्रकृति का सुंदरतम समय होता है, उस पर एक जीवनदायिनी, सौंदर्य संपन्न नर्मदा नदी का तट हो, दूसरे तट पर पहाड़ियाँ हों तो पूछना ही क्या? ब्रह्मघाट से पूरब कुछ ही दूर पर नर्मदा बाँध दिख रहा था और उधर ही नर्मदा नदी में सूरज चमक रहा था। नवंबर का महीना था, हवा में कुछ सर्दी भी थी और सामने नर्मदा अपनी लहरों पर सवार कल-कल करती बह रही थी। हम घाट पर बैठ गए। घाट पक्का है, सीढ़ियाँ बनी हुई हैं। जगह-जगह महिलाओं के वस्त्र बदलने के लिए केबिन बने हुए हैं। यह सब भी अच्छा लगता है। ऐसी सुविधाएँ अच्छी ही नहीं लगतीं, हमारे सभ्य एवं सुसंस्कृत होने का प्रमाण होती हैं। कुछ लोग नर्मदा के जल में डुबकी लगा रहे थे। हम सब भी घुसने की जुगत में थे।

नर्मदा भौगोलिक रूप से मध्य भारत की सबसे बड़ी और देश की तीसरी बड़ी नदी है। संभवतः यह गंगा से भी प्राचीन है। अपनी लंबी यात्रा में न जाने कितने लोगों, कितनी वनस्पतियों की प्यास बुझाती है, कितनों को रिझाती है। मुझे कालिदास की याद हो आई। वे मेघदूतम्में नर्मदा का उल्लेख करना नहीं भूलते। बडे़ सम्मान और काव्यात्मकता से करते हैं। कालिदास का प्रकृतिप्रेम विलक्षण था। उनका यक्ष मेघ से निवेदन करता है - हे मेघ! तुम आम्रकूट पर्वत पर क्षणभर ठहरकर, वर्षा कर लेने के बाद हल्के हो जाने के कारण विंध्याचल की तलहटी में छिन्न-भिन्न हुई रेवा नदी को देखना जो हाथी के शरीर पर बनी रचनाओं के समान दिखेगी (मेघदूतम्, पूर्वमेघ- 19) कालिदास अपनी उपमा के लिए ऐसे ही नहीं प्रसिद्ध हैं। लगभग काली मिट्टी के ऊपर पर्वतीय प्रदेश में पतली-पतली अनेक धाराओं में विछिन्न नर्मदा सच में वैसी ही दिखती है, जैसे हाथी की त्चचा पर खिंची हुई विचित्र सी रेखाएँ।

नर्मदा का एक प्राचीन नाम रेवा है। यह कन्यारूप में भी पूजित होती है। धार्मिक दृष्टि से देखें तो यह गंगा से बड़ी पापनाशिनी है-

सद्यः पापहरा गंगा सप्ताहेन कलिंदजा।

त्र्यहात्सरस्वति रेवे त्व तु दर्शनमात्रतः ।।

 प्रातः काल नर्मदा में स्नान के बाद      छाया  :  राढ़ी 

अर्थात् गंगा त्वरित पापहारिणी है, यमुना सप्ताहभर में पाप हरती है, सरस्वती तीन दिन में किंतु रेवा तो दर्शनमात्र से ही पाप हर लेती है। विंध्य पर्वत हिमालय से पुराना है तो नर्मदा गंगा से पुरानी होगी ही। जो प्रदेश सूखा होगा, वहाँ पर नदी का महत्त्व अधिक होना ही है। खैर, नर्मदा कितना पाप हरती है, यह तो मैं नहीं जानता, लेकिन नैनों को तृप्त करती है। एक आश्वस्ति, एक शांति प्रदान करती है।

मैं भी नर्मदा में उतर जाता हूँ। वह तो मुझमें पहले से ही उतरी थी। मैं नदियों में स्नान करना पसंद नहीं करता। प्रदूषित जल में नहाकर मुझे पुण्य अर्जित करने की इच्छा नहीं होती। लेकिन ओंकारेश्वर की नर्मदा, हरिद्वार की गंगा और सरयू (घाघरा)   में सर्वत्र नहा लेता हूँ। यहाँ ब्रह्मघाट पर नर्मदा की धारा तेज है, इसलिए बमुश्किल जाँघभर पानी में ही रुकना पड़ा। साथ में श्रीमती जी और उपेंद्र जी का पुत्र भी नहा रहे थे। उपेंद्र जी अभी घाट पर बैठे अपना डर दूर होने की प्रतीक्षा कर रहे थे और साथ में फोटोग्राफी-वीडियोग्राफी भी कर रहे थे। नर्मदा की धारा में छोटी-छोटी मोटरबोट चल रही थीं तो कहीं बच्चे हवाभरे ट्यूब पर बैठकर मजे ले रहे थे। श्रीमती जी ने उनसे नदी की तलहटी से कुछ सुडौल पत्थर निकलवाए। इन पत्थरों में लोग नर्मदेश्वर के दर्शन करते हैं, अपने घरों में स्थापित करते हैं। बच्चों ने कई नर्मदेश्वर दिए और श्रीमती जी ने उन्हें उसका पारिश्रमिक दिया। बच्चों के चेहरे खिल उठे।

नर्मदा को प्रणाम कर हमने ओंकारेश्वर मंदिर की ओर प्रस्थान किया। दोनों परिवार की महिलाओं का मन था कि अभिषेक-पूजा करवा ली जाए। कल वाले पंडित जी की सज्जनता हमें पसंद आई थी। उन्हें फोन किया और सब कुछ संतोषजनक ढंग से संपन्न हो गया। एक बार मंदिर से निकले तो मन में इस ज्योतिर्लिंग की महत्ता का श्लोक गूँजता रहा-

कावेरिकानर्मदयोः पवित्रे समागमे सज्जनतारणाय।

सदैवमान्धातृपुरे वसंतमोङ्कारमीशं शिवमेकनीडे।।

दस बजने वाले थे और हमारा चेक आउट का समय हो गया था। मंदिर के पास जलपान करके हमने होटल के लिए प्रस्थान किया। यहाँ से इंदौर जाना था क्योंकि हमारी इंटरसिटी एक्सप्रेस सायं चार बजे यहीं से निकलनी थी। हाँ, रास्ते की प्राकृतिक सौंदर्य का रसपान करने में हम नहीं चूके। बहुत दिनों तक यह यात्रा हमारे मस्तिष्क पर छाई रही।

उपेंद्र जी के साथ 

आवश्यक जानकारियाँ:

कब जाएँ: अप्रैल-मई-जून में गरमी अधिक होती है। इन्हें छोड़कर पूरे वर्ष जाया जा सकता है।

कैसे जाएँ: निकटतम हवाई अड्डा इंदौर है। प्रमुख रेलवे स्टेशन भी इंदौर ही है जहाँ पूरे देश से गाड़ियाँ संचालित होती हैं। निकटतम रेलवे स्टेशन ओंकारेश्वर रोड है। यहाँ से ओंकारेश्वर 12 किमी है। इंदौर से ओंकारेश्वर की दूरी 77 किलोमीटर है। बसें और टैक्सियाँ सुलभ हैं। ओंकारेश्वर का बस स्टैंड शहर से बाहर है जहाँ से इंदौर, उज्जैन सहित अनेक शहरों को बसें मिलती रहती हैं। उज्जैन से ओंकारेश्वर दर्शन की बसें प्रातः निकलती हैं और सायं वापस आ जाती हैं। 2021 में इनका किराया प्रति व्यक्ति 300/ से 500/ तक था।

कहाँ ठहरें: ओंकारेश्वर में मध्यप्रदेश पर्यटन का रिसोर्ट, सभी प्रकार के होटल, धर्मशालाएँ उपलब्ध हैं। गजानन संस्थान की धर्मशाला में ठहरा जा सकता है। इसके अतिरिक्त मंदिर ट्रस्ट की धर्मशाला श्री जी निवासभी है जिसमें हॉल के साथ कॉमन शौचालय-स्नानागार हैं। भोजन के लिए अनेक रेस्टोरेंट और ढाबे हैं।

संपर्क: 

email: hsrarhi@gmail.com

















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