समीक्षा
अन्वेषक : सत्य के अन्वेषण को प्रस्तुत करता नाटक
-हरिशंकर राढ़ी
Hari Shanker Rarhi |
यह दृश्य-श्रव्य विधा है और दृश्य विधा का प्रभाव सर्वोपरि होता है। विभिन्न आकार-प्रकार एवं विषयवस्तु के नाटकों का लेखन मानवीय सभ्यता के समय से ही चला आ रहा है। हिंदी में भी नाटकों की परंपरा समृद्ध होती रही है, हालाँकि टीवी और फिल्मों के आने के बाद इनके स्वरूप, प्रकार, माँग एवं दर्शकवर्ग में व्यापक परिवर्तन आया है।
वर्तमान में हिंदी साहित्य में अच्छे नाटककारों की संख्या बहुत कम रह गई है। उँगलियों पर गिनने लायक नाटककारों में एक प्रताप सहगल भी हैं जिनके खाते में पैंसठ से अधिक चर्चित नाटक, रेडियो नाटक, धारावाहिक एवं अन्य प्रारूप दर्ज हैं। इन दिनों प्रताप सहगल के नाटक ‘अन्वेषक’ से गुजरने का अवसर मिला जो मेरे एक सुखद अनुभव था। यह भी एक विचित्र संयोग ही रहा कि किंचित ढाई दशक पूर्व लिखे इस नाटक से गुजरना अब जाकर हुआ। किंतु, ‘अन्वेषक’ जैसे नाटकों की विषयवस्तु कभी पुरानी नहीं होती, कालकवलित नहीं होती।
‘अन्वेषक‘ महान गणितज्ञ और ज्योतिष् विज्ञानी आर्यभट के जीवन के उस हिस्से को बड़ी शिद्दत से मंचित करता है जब वे पृथ्वी की सूर्य के चारो ओर परिक्रमा संबधी शोध को लेकर अंधविश्वासी पंडितों/ब्राह्मणों के विरोध को झेल रहे थे और अपने सत्य उद्घाटन के कारण तमाम लोगों के कोपभाजन बन रहे थे। इसमें संदेह नहीं कि श्रद्धा व विश्वास के नाम पर नागरिकों के बीच अंधविश्वास फैलाकर, परंपरा के नाम पर अतार्किक वचनों का सहारा लेकर न जाने कब से और कितने तथाकथित बुद्धिजीवी अपनी रोटी और सत्ता चलाते रहे और समाज को सत्य से वंचित किए रहे। जब भी तार्किक एवं वैज्ञानिक सोच के किसी व्यक्ति इस अंधेरे को चीरने का प्रयास किया, उसे या तो देश निकाला मिला या मृत्यु। यह मानव स्वभाव का सार्वभौमिक सत्य रहा है। भारत तो क्या, पाश्चात्य जगत में सुकरात को भी इन्हीं कारणों से जहर का प्याला पीना पड़ा।
‘अन्वेषक‘ की विषयवस्तु आर्यभट द्वारा की गई खोज भले हो, किंतु नाटक को पढ़ते समय ऐसा नहीं लगता कि नाटककार ने प्राचीन भारतीय गौरव के यशोगान या आर्यभट के शोध की महानता को स्थापित करने के लिए इस नाटक की रचना की है। ऐसा बार-बार लगता है कि नाटककार ने स्वार्थी ब्राह्मण विद्वतपरिषद द्वारा निजी स्वार्थों के तहत लकीर से अलग चलते किसी विद्वान के शोधकार्य को निरस्त करवाने, उनकी चालबाजियों का पर्दाफाश करने एवं उनके वांछनीय से विपरीत दिशा में जाने को अपने कथ्य का केंद्र बनाया है।
नाटक का कथानक कुल इतने में ही समेटा जा सकता है कि आर्यभट अपने शोध में इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि सूर्य स्थिर है और पृथ्वी उसके चारो ओर परिक्रमा करती है। बुधगुप्त से संवाद में यह भी स्पष्ट होता है कि इससे पूर्व आर्यभट शून्य एवं दशमलव की खोज कर चुके हैं, जो नालंदा जैसे विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम में शामिल है। आर्यभट की इस खोज का भी ब्राह्मणों ने विरोध किया था, विद्वत परिषद से इसे पारित कराने में कठिनाई हुई थी। किंतु, आर्यभट का नया शोध सदियों से चली आ रही इस मान्यता कि सूर्य उदयाचल से उगता है और अस्ताचल में डूबता है, के समर्थकों को पचता नहीं है। उन्हें अपना पुरोहितत्व खतरे में दिखता है। वे आर्यभट से पहले से ही ईष्र्या रखते हैं। इस बार वे पूरे मनोयोग एवं सांगठनिक शक्ति के साथ सम्राट के सम्मुख अपना विरोध दर्ज कराते हैं और कदाचित प्रजा को भी भड़काने से बाज नहीं आते। अंत में सम्राट द्वारा ‘आर्यभटीय’ स्वीकृत होती है, किंतु तब तक आर्यभट राज्य छोड़कर जा चुके होते हैं।
देखा जाए तो प्रताप सहगल ने इस कथानक को बहुत सुंदर एवं सुनियोजित ताने-बाने में बुना है। नाटक पढ़ते हुए प्रायः लगता है कि नाटककार को युगबोध, दर्शकों या पाठकों की मानसिकता, नाटक की आवश्यकताओं और प्रस्तुतीकरण की पूरी जानकारी है। वह उन तमाम सूक्ष्म तत्त्चों को नाटक में डालते हुए चलता है जिसके बिना एक अच्छा नाटक तैयार नहीं हो सकता। चूँकि नाटक में लेखक को अपनी तरफ से किसी टिप्पणी, किसी कथन या किसी स्पष्टीकरण के लिए रंचमात्र स्थान या अवकाश नहीं मिलता, उसे अनेक युक्तियों का सहारा लेकर अंतर्दृश्यों एवं आवश्यकताओं को स्पष्ट करना पड़ता है। नट-नटी, आत्मगत कथन (Soliloquy), स्वगत कथन (Aside), नेपथ्य इत्यादि ऐसे उपकरण नाटक की प्रस्तुति के आवश्यक अंग होते हैं जिनमें से कुछ का इस लेखक ने इनका न्यायसंगत प्रयोग किया है।
ऐतिहासिक नाटकों के साथ कुछ मत-मतांतर एवं विवाद प्रायः जुड़ते रहते हैं, खासकर अपने यहाँ के नाटकों के साथ। कारण यह है कि भारत में इतिहास लेखन की कोई आधिकारिक परंपरा न होने से तथ्यों में अंतर हो जाता है। किंतु हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि जब इतिहास साहित्य की किसी विधा में उतरता है तो साहित्य की माँग के अनुसार किंचिंत परिवर्तन आवश्यक हो जाता है जो उसे पठनीय बनाता है और इतिहास को साहित्य बनाता है। ऐसे परिवर्तन शेक्सपीयर से लेकर कालिदास तक के नाटकों में पाए जाते हैं। स्वस्थ मनोरंजन की प्रत्याशा लेकर आया एक साहित्यिक पाठक या दर्शक शुष्क इतिहास के दर्शन करने नहीं आया होता है। ‘अन्वेषक‘ में भी देखा जाए तो नाटककार ने कुछ ऐसे प्रसंगों को जोड़ा है जो इसकी पठनीयता/दर्शनीयता में अपना योगदान देते हैं। केतकी और आर्यभट का प्रेम-प्रसंग इतिहास में चाहे जैसा भी रहा हो, इस नाटक में यह आर्द्रता, मधुरता एवं सवेंदनशीलता का पुट डालता है।
रचना किसी भी विधा में हो, भाषा-शैली के महत्त्व को नकारा नहीं जा सकता। जिस परिवेश को लेकर यह नाटक चलता है, उस समय विद्वत परिषद व राजदरबार की भाषा संस्कृत रही न रही हो, वह शुद्ध और परिष्कृत जरूर रही होगी। वस्तुतः जब भी हम भारत के अतीत की बात करते हैं तो लगता है कि उस समय संस्कृत जैसी भाषा बोली जाती रही होगी। संभवतः इसी मानसिक स्थिति मंे ‘अन्वेषक‘ के संवाद तत्सम व गंभीर शब्दों से बने हैं। वे आर्यभट के काल का वातावरण बनाने में सहयोगी सिद्ध होते हैं, इसमें संदेह नहीं।
‘अन्वेषक‘ को दो अंकों में विभक्त माना जा सकता है जिसमे कुल दस दृश्य हैं । इसमें मध्यांतर के साथ नट-नटी एक बार पुनः उपस्थित होते हैं और बड़ी चतुराई से आगे का संकेत कर जाते हैं। संवादों में प्रवाह है। यह भी कहा जा सकता है कि नाटक में जिज्ञासा, उत्सुकता और रोचकता का वातावरण बना रहता है। मंचन की दृष्टि से ‘अन्वेषक‘ कितना सफल है, यह तो निर्देशक एवं दर्शक ही बता पाएँगे, किंतु एक पाठक को यह नाटक प्रभावित करता है। किताबघर से प्रकाशित इस नाटक के मूलपाठ की लंबाई 55 पृष्ठ है। ऐसे नाटक स्वागतयोग्य हैं।
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