यात्रा संस्मरण
एक दिन अलवर तक
ऐसा नहीं है कि यात्रा हुए कोई लंबा अरसा बीत गया था, लेकिन मुझे लग रहा था। अभी पिछले महीने ही वैष्णो देवी की यात्रा से आया था। इधर अप्रैल में छुट्टियाँ दिख रही थीं और उसका उपयोग कर आने का मन था। बेटी के पास समय बिल्कुल नहीं होता, इसलिए पूरे परिवार का एक साथ निकलना मुश्किल था। छुट्टी दिखी तो योजना बनी कि ऋषिकेश हो आते हैं। बेटी का हिसाब नहीं बना। तो चलिए एक दिन के लिए कहीं चलते हैं। कहाँ चलें? कुरुक्षेत्र हो आते हैं। लेकिन कुरुक्षेत्र मैं दो बार घूम चुका हूँ। मथुरा-वृंदावन जाने का न तो मन होता है और न कुछ देखने के लिए खास है। अंततः बेटी ने कहा कि अलवर चलते हैं। अपने को तो बस कहीं निकल जाने से भी संतोष हो जाता है, इसलिए ठीक है।
हमारी यात्राएँ प्रायः रेलगाड़ी से होती हैं। कभी-कभी चौपहिया से भी हुई हैं। इधर पिछले साल से अपने पास भी एक गाड़ी हो गई, लेकिन उस गाड़ी से हम दिल्ली से बाहर यात्रा पर एक ही बार मथुरा तक के लिए निकल पाए थे। वह यात्रा बहुत संतोषप्रद नहीं थी। अलवर की बात आते ही सरिस्का अभयारण्य दिमाग में घूमता है, लेकिन उसके लिए चार-पाँच घंटे चाहिए। हमें तो बस सुबह निकलकर शाम तक वापस आना था। इसलिए हम बस यात्रा को ही पर्यटन मानकर अलवर के लिए तैयार हो गए।
मूसारानी की छतरी : अलवर |
रविवार, यानी कल की सुबह हम खुशी-खुशी निकल पड़े। गाड़ी जबसे आई है, लंबी यात्रा पर नहीं गई। यह भी चल लेगी, और हम भी। बस, खुलेपन और प्रकृति का आनंद ले लेंगे। बेटे ने गाड़ी सँभाली और गुडगाँव जाकर दिल्ली-मुंबई एक्सप्रेस वे पर चढ़ते ही स्टीयरिंग मुझे पकड़ा दी। आगे चार लेन (दोनों तरफ मिलाकर आठ लेन) का भारत का अत्याधुनिक एक्सप्रेस वे और मेरे जैसा नौसिखिया चालक।
अपने जीवन का एक बड़ा हिस्सा तो ऐसे ही निकल गया। जब बड़े शौक थे, तब हो नहीं पाया और बाद में शौक ढंडे हो गए। एक जमाना हुआ करता था कि तमाम लोगों के लिए अपनी गाड़ी सपना हुआ करती थी। गाँवों में तो मोटरसाइकिल वाले को बड़ी हैसियत का आदमी समझा जाता था। गाड़ी चलाना तो बहुत पहले सीख लिया था, किंतु अपने पास गाड़ी थी नहीं। अभ्यास हो नहीं पाया और अनभ्यासे विद्या विनश्यति। लेकिन, याद की हुई विद्या और सीखे हुए गुण में अंतर होता है। सीखी हुई विद्या थोड़ी-बहुत तो जिंदा रहती है।
सिलसेढ़ लेक पर हरिशंकर राढ़ी |
पहली बार इतने बड़े दु्रतगामी पथ पर गाड़ी चलाने में झिझक तो हुई, लेकिन विश्वास था कि चला लूँगा। थोड़ी धीरे चलाऊँगा, यही न। गाड़ी का होना या गाड़ी चलाना कोई बड़ी उपलब्धि नहीं है। हाँ, यदि कुछ आवश्यक गुण सीख लिए जाएँ तो बेहतर तो होता है। हमारे गाँव के पाँचू हरिजन कहते थे कि बाबू अपना गुन राजा होता है। बात गाड़ी के होने या चलाने की नहीं है, बात तो उस रोमांच और अनुभूति की है जो मुझे पहली बार हो रही थी।
दिल्ली-मुंबई एक्सप्रेस वे, अर्थात् बदलते और विकसित होते भारत की एक नई तस्वीर। मैंने तो उस जमाने की सड़कें देखी हैं जब सड़क का होना ही उपलब्धि था। एकल सडकें जब दोहरी हुईं तो लगा कि कितनी बड़ी बात है। और आज यह सड़क! एक बार चढ़ जाएँ तो लगता है कि हम धरती से अलग, कहीं आसमान में यात्रा कर रहे हैं। अगल-बगल से एक सौ दस या बीस की गति से भागती आधुनिक गाड़ियाँ। आगे दो-तीन सौ मीटर पर मृगमरीचिका की भाँति दृश्य। एकदम नाक की सीध में, मोड़ है तो भी बहुत हल्का। पेट का पानी तक नहीं हिलता। और कुछ ही किलामीटर तय करने के बाद अपनी भी गाड़ी गति में आ गई। इस मार्ग पर तो धीरे भी नहीं चल सकते। बाएँ से पहली लेन छोड़कर चलती हुई भारी ट्रकें, उसके बाद तीसरी में हम जैसे मंदगति, मंदबुद्धि वाले। अंतिम चौथी लेन में तेज-तर्रार उड़ाके, अस्सी-नब्बे की गति में चलती गाड़ी को पीछे छोड़ते फर्राटा भर रहे हैं। उन्हें इस गति से निकलता देखकर अपनी गाड़ी के स्पीडोमीटर पर नजर डालता हूँ तो हैरानी होती है। अस्सी से नब्बे तक तो मैं अनाड़ी चल रहा हूँ, इनकी तो बात ही अलग है।
ऐसी सड़कों के सपने साकार होने की बात करूँ तो कुछ लोग सरकार समर्थक कहकर मेरी निंदा शुरू कर देंगे। पर क्या करूँ? मुझे भी लगता है कि इन सड़कों में खेती की जमीने डूबी हैं, करोड़ों का वारा-न्यारा हुआ है, लेकिन सुविधा तो हुई है। इस सुविधा में खटास तब लगती है, जब कुछ दूर पर टोल टैक्स की बाधा आती है। बहुत पैसा वसूल लेते हैं। लेकिन दिल्ली में 12-14 का औसत देने वाली गाड़ी अभी 22-23 दे रही है। पेट्रोल भी बच रहा है और समय भी। गाड़ी फर्राटे भर रही है और यात्री खर्राटे। वैसे अपने परिवार में खर्राटे वाली बात लागू नहीं होती। यात्रा और प्रकृति का आनंद हम सभी लेते हैं।
टोल गेट तो बार-बार मिल रहे हैं, लेकिन रेस्तराँ और जनसुविधाएँ नहीं। अभी निमार्णाधीन है। सड़कमार्ग से जा रहे हैं तो हमें हर घंटे पर चाय चाहिए। लेकिन यहाँ नहीं है। हमने पेट्रोल टैंक दिल्ली में ही फुल करा लिया था। यहाँ इसका भी संकट है। दो निर्माणाधीन रेस्तराँ/ विश्रामगृह निकल गए। अब चाय के लिए बेचैनी हो रही है। गाड़ी चलाने में कुछ करना नहीं है। टॉप गियर में पड़ी है। पाँव गति त्वरक के पायदान पर एक भाव में टिके हैं। डर लगता है कि नींद न आ जाए। लेकिन गाने और बातचीत से माहौल बना हुआ है। जैसे ही रेस्तराँ और विश्रामालय का बोर्ड कहीं दिखता है, आँखों में चमक आ जाती है, लेकिन मिलता शून्य है।
गुड़गाँव से निकले, लगातार चलते दो घंटे हो चुके हैं। कहीं कुछ नहीं। गूगल बाबा बताते हैं कि दस किमी के बाद अलवर के लिए इस द्रुतमार्ग से निकास यानी एक्जिट लेना है। मन आश्वस्त होता है कि उसके आसपास चाय-नाश्ते का जुगाड़ हो जाएगा। हो जाता है। एग्जिट से थोड़ा पहले ही एक्सप्रेस वे का कार्यरत पहला विश्रामालय एवं जलपान गृह दिखता है। मैं देखभाल कर तीसरी लेन से बाएँ होता हूँ और एक अच्छे चालक की भाँति गाड़ी को यहाँ ले जाकर पार्क कर देता हूँ। अब तक आत्मविश्वास बढ़ चुका है। जीवन का एक भूला-बिसरा शौक आज पूरा हो गया है।
एक्सप्रेस वे ढाबा अच्छा है। बाहर ढेर सारी गाड़ियाँ लगी हैं। लोगबाग कमर सीधी कर रहे हैं। जनसुविधाएँ भी हैं, थोड़ा और बेहतर होने की उम्मीद रखती हैं। खाने के विकल्प अधिक नहीं हैं, लेकिन जो भी है, ठीक है। सबसे मजे की बात कि यहाँ कुल्हड़ चाय भी उपलब्ध है। कुल्हड़ चाय, यानी मेरे लिए अतीत के स्वाद को पुनर्जीवित करने का एक सोंधा अवसर! चाय-नाश्ता कर, फोटो-सोटो खींच, समय के मजे लेते हुए एक बार फिर अलवर की ओर। अब यहाँ से गाड़ी बेटा चला रहा है।
एक्सप्रेस वे को छोड़ना जैसे किसी सुख को छोड़ना है। लेकिन अच्छा यह है कि अब हम गाँवों के साथ चलेंगे। रास्ते में तीन टोल गेट पड़ते हैं। एक्सप्रेस वे का टोल समझ में आता है, लेकिन ये किस बात का टोल ले रहे हैं? एक बार इन्हें अपनी सड़क तो जरूर देख लेनी चाहिए। शहर में घुस जाते हैं। यहाँ तीन जगहें हमारी सूची में हैं। एक तो अलवर का किला, जो काफी ऊँचाई पर है। समय भी लगता है, इसलिए हमारी प्राथमिकता में नहीं है। बहुत किले देख चुके हैं। हममें से कोई भी इतिहास व पुरातत्त्व प्रेमी नहीं है। शहर में ही मूसारानी की छतरी है। पहले वहीं चलते हैं।
मूसारानी की छतरी कलेक्ट्रेट के अंदर ही मान लेते हैं। महल तो है ही। समझ नहीं आता कि अलवर कलेक्टेªट महल में है या महल कलेक्ट्रेट में। वैसे जगह अच्छी है। राज्य सरकार का एक म्यूजियम भी है। अच्छा है। एक जगह उसमें तमाम मुगल बादशाहांे और राजपूतों की तलवारें लगी हैं। अकबर, जहाँगीर और नादिरशाह दुर्रानी की तलवारें हैं, तो कुछ राजपूत राजाओं की भी। आज बहुत सजाकर रखी हैं। मेरे मन में आता है कि इन्होंने अपनी लालच, अहंकार और अजेयता के भ्रम में कितने इंसानों का खून पिया होगा। कितनी मौतें हाजिर की होंगी और कितने परिवारों को अनाथ किया होगा। खुद तो चले गए, तलवारें भी लेते जाते तो क्या!
फौजी ढाबा पर : अलवर |
मूसारानी की छतरी देखने लायक है। यहीं से अलवर का किला भी दिखता है और सुंदर दिखता है। एक से ऊपर बज गए हैं। थोड़ी गरमी भी लग रही है। अब हम अगले पड़ाव सिलिसेढ़ झील की ओर चलते हैं। पहले मालूम हुआ कि यहाँ से दस-बारह किमी होगी। गूगल बाबा ने बताया कि 23 किमी है। लेकिन भूख लग गई है। अब चलते हुए कहीं भोजन करना है। आज की पीढ़ी और तकनीक में गहरी दोस्ती है। बेटा गूगल देखता है तो पता चलता है कि रास्ते में कोई फौजी ढाबा है जिसकी प्रतिष्ठा है। मैप लगाता है और हम पहुँच जाते हैं। शहर से कुछ बाहर है। अच्छा सा प्रवेशद्वार, घास, लान और सुंदर पेड़। अंदर बैठने की अच्छी व्यवस्था।
अपनी पसंद का आदेश देकर बैठ गए। यह ढाबा अमीरचंद मीणा का है। वे आदिवासी समाज के नेता भी हैं। फौज से रिटायर हुए हैं। बड़ी-बड़ी रौबीली मूँछे, धोती कुरता पहनकर बैठे रहते हैं। हर ग्राहक से फीडबैक लेते रहते हैं। भोजन के बाद हमसे भी लिया। सुना कि माह के अंतिम रविवार को भंडारा देते हैं। भोजन में लहसुन-प्याज नहीं पड़ता। फिर भी स्वादिष्ट। और हाँ, यहाँ की लस्सी न पी तो कुछ नहीं लिया। लेकिन उससे भी बढ़िया इनकी कुल्हड़ की चाय। सच तो यह है कि इससे बढ़िया कुल्हड़ की चाय मैंने कहीं नहीं पी।
यह सब हमारी इस बार की यात्रा है, चाय पी रहे हैं, यात्रा चल रही है। एक घंटे बाद यहाँ से निकलते हैं और सिलिसेढ़ झील की ओर चल पड़ते हैं। ढाबे वाले ने बताया कि झील यहाँ से 12-14 किमी है। गूगल अभी 19 बता रहा है। कुछ तो गड़बड़ है। मैं गूगल मैप छोड़कर मुख्य गूगल तलाशता हूँ। गूगल कहता है इसे जयसमंद झील भी कहते हैं। सिलिसेढ़ झील के साथ दूसरा विकल्प सिलिसेढ़ लेक पैलेस भी देता है जो लगभग 12 किमी है। अच्छा तो यह रहस्य है। बेटा अब मैप पर डेस्टिनेशन बदलता है और हम अरावली की संुदर पहाड़ियों के बीच से झील पहुँच जाते हैं।
सिलसेढ़ लेक : अलवर |
यहाँ प्रति व्यक्ति एक सौ रुपये का टिकट लगता है। गाड़ी अंदर जा सकती है। पार्किंग निःशुल्क है। इसी सौ रुपये में पैलेस के रेस्तराँ में तो एक कप कॉफी या एक 250 मिली का शीतल पेय या पानी की एक बोतल भी मिलेगा। उनके यहाँ इसकी कीमत 40 से 50 के बीच है, जबकि असली कीमत 20 रु है। वाकई यह जगह बहुत मनोहर एवं नयनाभिराम है। झील के पानी को छूकर आती हवा तन-मन को शीतल कर देती है। देखने लायक तो है। यहाँ से हम रेस्तराँ जाते हैं। वहाँ से भी दृश्य बहुत सुंदर है। अच्छा तो लगता है। एकाध रात ठहरा जाए तो बुरा नहीं है।
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सुस्वागतम!!