एक समृद्ध शाम
-हरिशंकर राढ़ी
(यह आलेख/ संस्मरण दिनांक 04 अक्टूबर, 2023 को लखनऊ से प्रकाशित समाचार पत्र 'जनसंदेश टाइम्स' में प्रकाशित है)
डॉ रामदरश मिश्र जी, प्रो स्मिता मिश्र जी, श्री ओम निश्चल जी और बद्री प्रसाद जी |
मिश्र जी से मिलने का कोई
विशेष कारण नहीं होता। बस जब भी उनके सान्निध्य की व्याकुलता होती है, बात की और चल दिए। बात तो होती ही रहती है। पिछले 15
अगस्त को जब उनका जन्म शताब्दी समारोह प्रारंभ हुआ था, तब से
ऊर्जा एवं गर्व का स्तर अपने आप उठ गया है। समारोहों का साक्षी बनने का अपना आनंद
है तो अलग से मिलने का अलग। मिश्र जी के कालखंड में होने व मिलते रहने का तात्पर्य
हमारे लिए कुछ ऐसा ही है, जैसे मिश्र जी का पं0 हजारी प्रसाद द्विवेदी के कालखंड में होना और उनसे मिलते रहना था।
मिश्र जी से मिले एक महीने
से अधिक हो गया था, उनसे मिलने का एक यही कारण
पर्याप्त था। सुबह फोन किया और पूछा कि कब आऊँ? मिश्र जी ने
कहा, ‘राढ़ी जी, जब मन हो आ जाइए आजकल
में’। फिर तो आज ही ठीक है। मित्र बद्री प्रसाद जी को फोन
किया। वे मिश्र जी से मिलाने के लिए आग्रह कर चुके थे। मैंने कहा कि आज शाम को समय
हो तो चलें, और हम शाम को पहुँच गए। इन दिनों वे बड़े पुत्र
श्री शशांक जी के साथ द्वारका में रह रहे हैं।
मिश्र जी तो वैसे ही खुश
रहते हैं,
ऊर्जस्वित रहते हैं, लेकिन आज कुछ अधिक खुश
दिख रहे थे। डॉ. वेद मित्र शुक्ल जी पहले से आए हुए थे। मिश्र जी की अपनी आभा है,
औरा है, जिसकी उजास में साहित्य और संबंध बहुत
पवित्र, बहुत अर्थवान लगने लगते हैं। लगता है कि हम साक्षात्
साहित्य की विभिन्न विधाओं के सम्मुख बैठे हुए हैं। जितना आत्मसात कर लें, हमारा है। किसी अपरिचित को भी वे क्षणभर में सहज एवं आत्मीय बना लेते हैं।
बिना किसी दिखावे के ही साहित्य उनसे झरता रहता है।
माता सरस्वती मिश्र जी के साथ |
कुछ देर बाद बहन प्रो.
स्मिता मिश्र जी माता जी को सहारा देते हुए लाईं। इन दिनों माता जी का स्वास्थ्य
कुछ ठीक नहीं चल रहा है। दाएँ हाथ में चोट लगी है, थोड़ा-सा
पैरालिसिस का प्रकोप है। माता जी को इस रूप में देखकर दुख हुआ। उन्हें इस हाल में
देखने की आदत नहीं है। वे तो सदैव ऊर्जा से भरपूर, ठहाके
लगाती हुई, साहित्य एवं समाज पर बेबाक टिप्पणियाँ करती हुई
मिली हैं। इस बार से पहले न जाने कितनी बार उनके हाथों की चाय पी है, हलवा खाया है। बहुत स्नेह मिला है। उनकी ऊर्जा की चर्चा मेरी श्रीमती जी
तमाम रिश्तेदारियों एवं अपनी सहेलियों से करती रहती हैं, प्रेरित
भी होती हैं। माता जी से कुछ देर तक बात हुई। कुछ सुधार है और विश्वास है कि अपनी
सकारात्मकता एवं सक्रियता से शीघ्र ही पहले की भाँति स्वस्थ हो जाएँगी।
मिश्र जी की जन्म शताब्दी
का समारोह दूर-दूर तक मनाया जा रहा है। अभी 27 सितंबर को
अहमदाबाद में एक समारोह बड़े स्तर पर धूमधाम से मनाया गया। गुजरात को मिश्र जी अपना
दूसरा घर मानते हैं। वहाँ के लिए उनके मन में असीमित प्यार है और उतना ही गुजरात
के लोग प्यार करते हैं। उन लोगों ने लगभग साठ साल पूर्व की मिश्र जी की यादें
सहेजकर रखी हुई हैं। उस कार्यक्रम में मिश्र जी की ओर से प्रो. स्मिता जी और श्री
ओम निश्चल जी गए थे। यह सब देखकर लगता है कि समय कितना भी खराब क्यों न हुआ हो,
जोड़-जुगाड़ का कितना भी बोलबाला हो, सच्चाई और
अच्छा साहित्य अभी भी सम्मान पाता है।
मिश्र जी के पास अनुभवों, स्मृतियों का विशाल भंडार है। आज वे पूरे मूड में थे और बहुत सारी यादें
हमसे साझा कीं। पं0 हजारी प्रसाद द्विवेदी की सहजता, उनका स्वतःस्फूर्त लेखन, डॉ नगेंद्र, रामविलास शर्मा आदि की स्मृतियों से जुड़े किस्से सुनाए। दंडी एवं भारवि के
प्रसंग सुनाए। यह हमारा सौभाग्य था कि मिश्र जी के माध्यम से हम न जाने कितने
मूर्धन्य साहित्यकारों को जान पा रहे थे। फिर बात भारतीय समाज, खासकर हिंदू समाज में फैले पाखंडों व अंधविश्वासों की चली। मिश्र जी ने
कुछ घटनाओं की चर्चा के साथ पाखंडियों एवं अंधविश्वासियों की अपने तरीके से
भर्त्सना की। स्त्री विमर्श, दलित विमर्श व आलोचना की बात
चली। अभी हाल में सर्वभाषा प्रकाशन से मिश्र जी के आलोचनात्मक निबंधों की पुस्तक -
‘आधुनिक साहित्य : सर्जना के आयाम’ पुस्तक
आई थी। मैं उसे पढ़कर उस पर समीक्षात्मक लेख ले गया था। उसकी भी चर्चा चली। मिश्र
जी ने माना कि प्रोफेसर के रूप में सेवा के दौरान उन्होंने आलोचना पर बहुत काम
किया था। पत्रिकाओं के माँगने पर छायावाद से लेकर अन्य विषयों पर आलोचना का कार्य
किया था, किंतु उन्होंने अपने आलोचक को बहुत महत्त्व नहीं
दिया। उपरोक्त पुस्तक में मिश्र जी का आलोचना पक्ष बहुत समृद्ध होकर उभरा है।
लगभग एक घंटे बाद ओम
निश्चल जी आ गए। हम उनकी प्रतीक्षा ही कर रहे थे। गीतकार, आलोचक एवं कुशल संचालक ओम निश्चल जी विभिन्न विषयों पर धाराप्रवाह बोलते
हैं। उन्होंने मिश्र जी पर अहमदाबाद में हुए कार्यक्रम का विवरण सुनाया। उनके
दृष्टिपथ में बहुत-सी बातें आती हैं और वे उन्हें बेबाकी से रखते हैं। बहुत देर तक
ठहाकों के साथ बातचीत चलती रही।
‘समकालीन
अभिव्यक्ति’ का जुलाई-सितंबर अंक अभी हाल में ही आया है। इस
अंक में अन्य सामग्री के साथ मिश्र जी के जन्मशताब्दी समारोह की सचित्र रिपोर्ट भी
गई है। डॉ. वेद मित्र शुक्ल के सुझाव से इस अंक का लोकार्पण भी मिश्र जी, ओम निश्चल जी, प्रो0 स्मिता जी,
डॉ. शुक्ल के हाथों हुआ। पत्रिका परिवार से बस मैं था। आज की
मुलाकात का यह एक अतिरिक्त लाभ था, संभवतः यह ‘समकालीन अभिव्यक्ति’ के वर्तमान अंक का सौभाग्य था।
अब हमारे जैसे नाचीज के
लिए इससे अधिक समृद्ध शाम दूसरी क्या होगी? हाँ, मिश्र जी का सान्निध्य है तो ऐसी शामें मिलती ही रहेंगी।
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सुस्वागतम!!